17 . सांदू हूंफा : |
चारण चैना ने श्रीजलंधरनाथ की वंदना करते हुए लिखा है कि सांदू हूंफा को । श्रीनाथजी ने संजीवनी प्रदान की , जिससे उसने रावळ दूदा के धड़ - रहित शीश को बोला दिया - सांदू हूंफा तणै , नाथ बगसी संजीवन । । जिण रावळ दूद रौ , सीस बोलायौ विण तन । । 11 । । । डॉ . मोहनलाल जिज्ञासु ने चारण साहित्य का इतिहास , भाग 1 में हूंपकरण ( हूंपाजी ) का परिचय देते हुए लिखा है - ‘ ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के गाँव हँपाखेड़ी के निवासी थे । इन्हें जैसलमेर के रावल दूदा ( दुर्जनशाल ) का आश्रय प्राप्त था । दुर्जनशाल की रानी उदयपुर की थी ; अतः उसने विवाह के समय इन्हें अपने पिता से सदैव के लिए साथ रखने को माँग लिया । रानी इन्हें अपने भाई के तुल्य एवं प्राणों से भी बढ़कर मानती थी । । वि . सं . 1368 ( 1311 ई . ) में रावल दूदा अलाउद्दीन खलजी से युद्ध करते हुए काम आये । रानी सती होने चली , किन्तु रणक्षेत्र में हजारों कटे हुए मस्तकों में से रावल दूदा का सिर मिले कैसे ? अपने पति के सिर के बिना वह सती भी कैसे होती ? उसने अपनी मनोभिलाषा हूंपकरण से व्यक्त की । इन्होंने अपने स्वामी को बिड़दावा ( प्रशस्ति - गान किया ) । फलतः सहस्रों मस्तकों में से रावल दूदा का । मस्तक बोल उठा सांदू हूंपे सेविौ , साहब दुरजनसल्ल । । बिड़दां माथो बोलियौ , गीतां दूहां गल्ल । । । और उसने कहा कि यदि मेरे हाथ - पाँव होते , तो मैं उठकर स्वयं तुम्हारे पास आकर तुम्हें भुजाओं में भर कर भेंट करता - हूंता जो पग हाथ , ऊठर सामो आवता । । | मिळता बाथोंबाथ , हियौ मिळायर हूंपड़ा । । । इस प्रकार कवि ने रानी को उसके पति का मस्तक देकर अद्वितीय चारणत्व का परिचय दिया । यह श्री जलंधरनाथ की अनुकम्पा से ही संभव हुआ - इस ‘ परचे ' के प्रारंभ में चारण चैनिया का कथन यही संकेत करता है । रावल दूदा की यह कथा तनिक परिवर्तन के साथ ‘ मुं . नैणसी री ख्यात ' में भी आई हैं।
चारण चैना ने श्रीजलंधरनाथ की वंदना करते हुए लिखा है कि सांदू हूंफा को । श्रीनाथजी ने संजीवनी प्रदान की , जिससे उसने रावळ दूदा के धड़ - रहित शीश को बोला दिया - सांदू हूंफा तणै , नाथ बगसी संजीवन । । जिण रावळ दूद रौ , सीस बोलायौ विण तन । । 11 । । । डॉ . मोहनलाल जिज्ञासु ने चारण साहित्य का इतिहास , भाग 1 में हूंपकरण ( हूंपाजी ) का परिचय देते हुए लिखा है - ‘ ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के गाँव हँपाखेड़ी के निवासी थे । इन्हें जैसलमेर के रावल दूदा ( दुर्जनशाल ) का आश्रय प्राप्त था । दुर्जनशाल की रानी उदयपुर की थी ; अतः उसने विवाह के समय इन्हें अपने पिता से सदैव के लिए साथ रखने को माँग लिया । रानी इन्हें अपने भाई के तुल्य एवं प्राणों से भी बढ़कर मानती थी । । वि . सं . 1368 ( 1311 ई . ) में रावल दूदा अलाउद्दीन खलजी से युद्ध करते हुए काम आये । रानी सती होने चली , किन्तु रणक्षेत्र में हजारों कटे हुए मस्तकों में से रावल दूदा का सिर मिले कैसे ? अपने पति के सिर के बिना वह सती भी कैसे होती ? उसने अपनी मनोभिलाषा हूंपकरण से व्यक्त की । इन्होंने अपने स्वामी को बिड़दावा ( प्रशस्ति - गान किया ) । फलतः सहस्रों मस्तकों में से रावल दूदा का । मस्तक बोल उठा सांदू हूंपे सेविौ , साहब दुरजनसल्ल । । बिड़दां माथो बोलियौ , गीतां दूहां गल्ल । । । और उसने कहा कि यदि मेरे हाथ - पाँव होते , तो मैं उठकर स्वयं तुम्हारे पास आकर तुम्हें भुजाओं में भर कर भेंट करता - हूंता जो पग हाथ , ऊठर सामो आवता । । | मिळता बाथोंबाथ , हियौ मिळायर हूंपड़ा । । । इस प्रकार कवि ने रानी को उसके पति का मस्तक देकर अद्वितीय चारणत्व का परिचय दिया । यह श्री जलंधरनाथ की अनुकम्पा से ही संभव हुआ - इस ‘ परचे ' के प्रारंभ में चारण चैनिया का कथन यही संकेत करता है । रावल दूदा की यह कथा तनिक परिवर्तन के साथ ‘ मुं . नैणसी री ख्यात ' में भी आई हैं।