34 . एक राजूपत : । जयपुर की तरफ के ( एक ) गाँव में एक राजपूत रहता था । वह जानता था कि यहाँ विलक्षण स्वरूपी श्रीजलंध्रनाथ विराजते हैं । एक दिन वह गाँव के बाहर गया । वहाँ उसे योगी के दर्शन हुए । उसने प्रणाम कर ( योगी से ) प्रार्थना की कि महाराज ! ! कुछ भोजन हाजिर करूँ ? तब यति ने कहा कि तुम्हारी जो इच्छा हो , ले आओ । वह अपनी इच्छानुसार श्रद्धा - सहित ( भोजन ) लाया । श्रीजलंधरनाथ ने सामान्य जन की तरह भोजन किया और उस पर कृपा करते हुए उसे सनाथ किया । | भोजनोपरान्त नाथजी ने कहा कि तुम्हें कुछ निधि देता हैं । ऐसा कह कर कुछ दूर गए , दो चिमठी भर रेणु ( धूल ) लाये और उसको प्रसन्नता से दी । श्रीजलंधरनाथ ने कहा कि मैं और लाता , परन्तु मार्ग में बलपूर्वक लूट लिया गया । ऐसा कहकर आप प्रस्थान कर गए एवं अपनी निर्गुण स्वरूपी लीला में रम गये । । श्रीजलंधरनाथ ( अन्य ) अवतारों जैसा ( केवल सगुण रूप धारण कर ) कार्य नहीं करते । वे तो सगुण और निर्गुण , दोनों स्वरूपी हैं । । श्रीमान देवनाथ के घर में एक महिला पर उन विदेह की कृपा है । उनके पास । नाथजी का चित्र है , जिसके दर्शन कर वे भोजन लेती हैं । एक दिन भूल से चित्र । को संपुट रखकर ताला लगा दिया और भूल गई । ( इस पर ) स्वप्न में आकर । श्रीनाथजी ने कहा कि यह क्या किया , मैं यहाँ भीतर घुट रहा हूँ । श्रीजलंधनाथ की ऐसी कृपा कहीं नहीं देखी , विशेषकर बालक जैसी ( हठ वाली ) बात । ( मुझ ) नृपति गान को वे मेरे घर में ( आकर ) कहते हैं , ' हठ मत कर हठ मत कर । रे कुकर, तु मेरा प्रिय है ।
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