प्रस्तावना
प्रस्तावना भारतीय दर्शन की परम्परा अनति प्राचीन रही है । उसकी विविध प्रवृत्तियों और धाराओं में नाथ पंथ ( सिद्धमत ) का अपना एक विशिष्ट व महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । न केवल उत्तर भारत में , अपितु दक्षिण में भी इसका खूब प्रचार - प्रसार हुआ । इसके अनुयायी आज भी दक्षिणाँचल में बहुतायत से मिलते हैं । नाथ - पंथ के उत्स , उद्भव , विकास और परम्परा के साथ इसके दार्शनिक पक्ष और पूजा - अर्चना के अभिचार पर विदेशी और भारतीय विद्वानों ने काफी शोधकार्य और विवेचन - विश्लेषण किया है । आज भी इसकी साधना - पद्धतियों तथा पूरे देश में बिखरे पड़े विपुल साहित्य पर विद्वानों की खोज जारी है । इस पंथ के दर्शन और योग - पद्धतियों ने हमारी समूची दार्शनिक मनीषा को प्रभावित किया है । भारत का संत - दर्शन तो प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप में इससे स्पष्टतः प्रभावित रहा । | नाथ - पंथ के विकास और प्रचार के इतिहास में राजस्थान का , विशेषकर मारवाड़ ( तत्कालीन ) का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । नाथ सम्प्रदाय के मनीषी विद्वानों ने इसे स्वीकार भी किया है ; किन्तु जिस प्रकार की तलस्पर्शी शोध - समीक्षा की इस हेतु अपेक्षा थी , वह आज भी प्रतीक्षित है । उदयपुर , बीकानेर , जयपुर , अलवर और भरतपुर की रियासतों में नाथयोगियों ने वहाँ के लोकाश्रय एवं राज्य - संरक्षण में अपने पंथ का जो अद्भुत प्रचार - प्रसार का कार्य किया और जिन महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की वह आज भी शोध की अपेक्षा रखते हैं । उपरोक्त सभी रियासतों में नाथ - मन्दिर और बड़े - बड़े मठ रहे हैं । अपनी योग - सिद्धियों और चमत्कारों से नाथ - योगियों ने इन रियासतों के राजवंशों , सामन्तों , जागीरदारों और साधारण जनता के मन को जीता । वे राजाओं के साथ जन - समाज के द्वारा समादृत और सम्मानित हुए । इन नाथ - संतों और योगियों ने दर्शन की एक विशिष्ट धारा और नाथ - दर्शन के हस्तलिखित ग्रन्थों का जो विपुल आगार हमारे समाज को दिया , वह भुलाया नहीं जा सकता । यदि पूरे राजस्थान में नार्थ - सम्प्रदाय के हस्तलिखित ग्रन्थों का सर्वेक्षण और संकलन हो , तो संभवतः हमें चकित रह जाना पड़े । देखें , इस ओर इस प्रदेश के विद्वानों की दृष्टि कब जाती है ? यह एक सुखद ऐतिहासिक घटना है कि मारवाड़ की धरा के एक प्रतिभा - पुत्र ने इस दिशा में संकल्पबद्ध होकर कार्य किया है । उनके आठ - नौ वर्ष की संकल्पित कठिन श्रमसाध्य सारस्वत - साधना की यह निष्पत्ति है कि उन्होंने ' श्री जालंधरनाथ - पीट , सिरे मन्दिर , जालोर ' शीर्षक से 288 पृष्ठीय एक वृहद् ग्रंथ की
रचना की। यह प्रतिभापुत्र हैं. डॉ. भगवतीलाल शर्मा, जो अपने निष्टापूर्ण
नोध-लेखन-सम्पादन और अध्यवसाय से सुचर्चित हैं। “'ढोला मारू रा दूहा' में
काव्य-सौष्ठव, संस्कृति एवं इतिहास” इनका चर्चित शोध-प्रबंध है, जिसकी विद्वानों
ने मुक्तकण्ठ से - प्रशंसा की है। इसके अतिरिक्त डॉ. शर्मा द्वारा संकलित,
सम्पादित, समीक्षित; लिखित अनेक ग्रंथ हैं और वे इस प्रदेश के एक स्थापित
शोध-विद्वान हैं। नोबल पुरस्कार-विजेता जॉन स्टीनबेक के उपन्यास फट ६81
का आप द्वारा “अमोलक मोती” शीर्षक से राजस्थानी रूपान्तर बड़ा ही सुन्दर बन
पड़ा है।
प्रस्तुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की प्रस्तावना लिखने का कृपापूर्ण अवसर जो मुझे
उन्होंने दिया है, उससे मैं वास्तव में आज गोरवाभिभूत अनुभव कर रहा हूं। ठीक
तीन दशक पूर्व मैंने नाथ-सम्प्रदाय के अन्य अनुयायी, नाथ-भक्त कवि और
अदभुत मनीषी जोधपुर-नरेश म. मानसिंह के व्यक्तित्व-कृतित्व॒ पर शोध-
उपाधिपरक कार्य किया था। नाध-सम्प्रदाय के दर्शन और साहित्य के महार्णव में
अवगाहन का मुझ तब कुछ अवसर मिला था। जालोर का श्रीजालंधरनाथ-पीठ
'सिरे मन्दिर' म. मानसिंह की पूजास्थली रही है। इसी मन्दिर से उनके विषादग्रस्त
जीवन के शुभंकरी उत्थान का श्रीगणेश हुआ। वे अनन्य नाथ-भक्त थे। उन्होंने
श्रीजालंधरनाथ की स्तुति, वंदना और आराधना में कई कृतियों की : रचना की।
कलशाचल पर अवस्थित इस सिरे मन्दिर की चतुर्दिकू प्राकृतिक सौन्दर्य मध्य
रमणीक शोभा का उन्होंने अपनी कृतियों में भावमय वर्णन किया है। तब मेरी
इच्छा हुई थी कि अपने शोधनायक की इस पूजास्थली के दर्शन कर्खे; उस पावन
. पार्वत्य अंचल को नमन करूँ; जहाँ नाथ-सम्प्रदाय के नवनाथों में आदरणीय
. श्रीजालंधरनाथ ने योग-साधना की थी। मुझे यह सौभाग्य नहीं मिला। आज डॉ.
शर्मा द्वारा रचित इस ग्रंथ ने परोक्ष रूप से मेरी उस चिरसिंचित आकांक्षा को कुछ
अंशों में पूरा कर दिया। इस ग्रंथ का अवलोकन कर मैं धन्य हुआ हूँ।
_ जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है, नाथ-सम्प्रदाय पर तो काम हुआ है;
किन्तु नाथ-योगियों के सिद्धस्थल “श्रीजालंधरनाथ-पीठ, सिरे मन्दिर' पर इतने
विस्तार से सांगोपांग शोध और लेखन-कार्य प्रथम बार ही हुआ है; स्फुट भा लेख
अथवा प्रासंगिक उल्लेख भले ही इस स्थान के महत्त्व को लेकर हुए हों।
लेखक डॉ. शर्मा ने इस ग्रन्थ को छः परिच्छेदों में सुनियोजित किया है --
. 1 .नाथ-सम्प्रदाय : एक विवेचन, 2. श्रीजालंधरनाथ-पीठ : सिरे मन्दिर, 3. मैं.
.. मानसिह : नाथ-सम्प्रदाय को. अवदान, 4. श्रीजालंधरनाथ
8
5. श्रीजालंधरनाथ-पीठ : गुरु-परम्परा और 6. परिशिष्ट। अन्त में कृति को.
अधिक सर्वांग उपयोगी बनाने के लिये संदर्भ-ग्रंथ-सूची (हस्तलिखित एवं मुद्रित) भी दी है ।नाथ सम्प्रदाय : एक विवेचन ' में ' नाथ ' शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ , द्वादश पंथ , नव नाथ , चौरासी सिद्ध आदि का उल्लेख करते हुए लेखक ने नाथ - योगी की वेशभूषा इत्यादि की जानकारी दी है । संक्षेप में यह अध्याय इस ग्रंथ की पीटिका प्रस्तुत करता है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति ‘ नाथ सम्प्रदाय ' के साथ इस विषय पर विदेशी देशी अन्य जिन विद्वानों ने कार्य किया है , उनके यथावश्यक संदर्भ देकर लेखक ने इस अध्याय को प्रामाणिक बना दिया है । मेरी दृष्टि से इस पुस्तक के मूल अर्थवान अध्याय तो तीन ही हैं - श्रीजालंधरनाथ पीठ : सिरे मन्दिर , श्रीजालंधरनाथ : चमत्कार - लीला और श्रीजालंधरनाथ - पीठ : गुरु - परम्परा । लेखक का प्रमुख अभिप्रेत इन अध्यायों में परिपूर्ण होता है । ‘ म . मानसिंह : नाथ - सम्प्रदाय को अवदान ' अध्याय भी निश्चितू रूप से इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण अध्याय कहा जायेगा , क्योंकि यह म . मानसिंह की धर्मस्थली - पूजास्थली रही और उनके भाग्य के सूर्य का उदय यहीं से हुआ । उन्होंने अपने इष्ट श्रीजालंधरनाथ एवं नाथ - गुरुओं की जिस अटूट निष्टा और अनन्य भक्ति तथा समर्पण - भाव से तन - मन - धन न्यौछावर करते हुए सेवा की , वह अद्भुत है । नाथ सम्प्रदाय को जो उनका अमूल्य अवदान रहा - वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है । संभवतः लेखक ने इसी उद्देश्य से इस अध्याय को इस ग्रंथ में दिया है । इससे ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ी ही है । । | श्रीजालंधर्नाथ पीठ : सिरे मन्दिर , श्रीजालंधरनाथ : चमत्कार लीला और जालंधरनाथ - पीट : गुरु - परम्परा नामक अध्याय इस ग्रंथ की हृदयस्थली और आत्मा हैं । इन तीनों अध्यायों में श्रीजालंधरनाथ - विषयक अत्यन्त प्रामाणिक सामग्री परिश्रमपूर्वक एकत्र कर विद्वान लेखक ने एक स्थान पर संजोई है । हस्तलिखित ग्रंथों के प्रमाण देकर लेखक ने अपने सभी कथन पुष्ट किये हैं । श्रीजालंधरनाथ - पीट का स्थापत्य क्या है , वहाँ कैसे भवन हैं , मन्दिर का सौन्दर्य कैसा है - आदि के साथ शिलालेख , सेवा - विधि , कीर्तिगान आदि का विवेचन भी इस अध्याय में है । ' चमत्कार - लीला ' अध्याय में श्रीजालंधनाथ व अन्य नाथयोगियों के विविध चमत्कारों का वर्णन है । इतिहास - पुरुषों के अतिरिक्त साधारण जन , जो नाथयोगियों की सिद्धियों और चमत्कारों से प्रभावित हुए , उनके दृष्टान्त इरा । अध्याय में देकर लेखक ने नाथयोग की जीवन्तता और सामाजिक उपयोगिता सिद्ध की है । ‘ गुरु - परम्परा ' वाले अध्याय में इस पीठ पर जो नाथयोगी आसीन हुए , उनकी परम्परा का इतिहास - प्रमाणित उल्लेख करते हुए , इस पीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर पूज्यपाद श्री शान्तिनाथजी का व्यक्तित्व - परिचय लेखक ने दिया है । । इस प्रकार ‘ श्रीजालंधरनाथ पीठ , सिरे मन्दिर ' पर प्रस्तुत यह इतना विवेचना पूर्ण और विस्तृत प्रथम ग्रंथ है , जो सभी दृष्टियों से सम्पूर्ण प्रतीत होता है । विद्वान लेखक निश्चित रूप से साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने न केवल एक अधार पूर्ति की है , अपितु नाथ सम्प्रदाय , उसके दर्शन , उसके विपुल साहित्य व अदर गुमनाम - प्रायः प्रसंगों की खोज कर उन्हें उद्घाटित करने की प्रेरणा भी दी है ।
प्रस्तावना भारतीय दर्शन की परम्परा अनति प्राचीन रही है । उसकी विविध प्रवृत्तियों और धाराओं में नाथ पंथ ( सिद्धमत ) का अपना एक विशिष्ट व महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । न केवल उत्तर भारत में , अपितु दक्षिण में भी इसका खूब प्रचार - प्रसार हुआ । इसके अनुयायी आज भी दक्षिणाँचल में बहुतायत से मिलते हैं । नाथ - पंथ के उत्स , उद्भव , विकास और परम्परा के साथ इसके दार्शनिक पक्ष और पूजा - अर्चना के अभिचार पर विदेशी और भारतीय विद्वानों ने काफी शोधकार्य और विवेचन - विश्लेषण किया है । आज भी इसकी साधना - पद्धतियों तथा पूरे देश में बिखरे पड़े विपुल साहित्य पर विद्वानों की खोज जारी है । इस पंथ के दर्शन और योग - पद्धतियों ने हमारी समूची दार्शनिक मनीषा को प्रभावित किया है । भारत का संत - दर्शन तो प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप में इससे स्पष्टतः प्रभावित रहा । | नाथ - पंथ के विकास और प्रचार के इतिहास में राजस्थान का , विशेषकर मारवाड़ ( तत्कालीन ) का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । नाथ सम्प्रदाय के मनीषी विद्वानों ने इसे स्वीकार भी किया है ; किन्तु जिस प्रकार की तलस्पर्शी शोध - समीक्षा की इस हेतु अपेक्षा थी , वह आज भी प्रतीक्षित है । उदयपुर , बीकानेर , जयपुर , अलवर और भरतपुर की रियासतों में नाथयोगियों ने वहाँ के लोकाश्रय एवं राज्य - संरक्षण में अपने पंथ का जो अद्भुत प्रचार - प्रसार का कार्य किया और जिन महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की वह आज भी शोध की अपेक्षा रखते हैं । उपरोक्त सभी रियासतों में नाथ - मन्दिर और बड़े - बड़े मठ रहे हैं । अपनी योग - सिद्धियों और चमत्कारों से नाथ - योगियों ने इन रियासतों के राजवंशों , सामन्तों , जागीरदारों और साधारण जनता के मन को जीता । वे राजाओं के साथ जन - समाज के द्वारा समादृत और सम्मानित हुए । इन नाथ - संतों और योगियों ने दर्शन की एक विशिष्ट धारा और नाथ - दर्शन के हस्तलिखित ग्रन्थों का जो विपुल आगार हमारे समाज को दिया , वह भुलाया नहीं जा सकता । यदि पूरे राजस्थान में नार्थ - सम्प्रदाय के हस्तलिखित ग्रन्थों का सर्वेक्षण और संकलन हो , तो संभवतः हमें चकित रह जाना पड़े । देखें , इस ओर इस प्रदेश के विद्वानों की दृष्टि कब जाती है ? यह एक सुखद ऐतिहासिक घटना है कि मारवाड़ की धरा के एक प्रतिभा - पुत्र ने इस दिशा में संकल्पबद्ध होकर कार्य किया है । उनके आठ - नौ वर्ष की संकल्पित कठिन श्रमसाध्य सारस्वत - साधना की यह निष्पत्ति है कि उन्होंने ' श्री जालंधरनाथ - पीट , सिरे मन्दिर , जालोर ' शीर्षक से 288 पृष्ठीय एक वृहद् ग्रंथ की
रचना की। यह प्रतिभापुत्र हैं. डॉ. भगवतीलाल शर्मा, जो अपने निष्टापूर्ण
नोध-लेखन-सम्पादन और अध्यवसाय से सुचर्चित हैं। “'ढोला मारू रा दूहा' में
काव्य-सौष्ठव, संस्कृति एवं इतिहास” इनका चर्चित शोध-प्रबंध है, जिसकी विद्वानों
ने मुक्तकण्ठ से - प्रशंसा की है। इसके अतिरिक्त डॉ. शर्मा द्वारा संकलित,
सम्पादित, समीक्षित; लिखित अनेक ग्रंथ हैं और वे इस प्रदेश के एक स्थापित
शोध-विद्वान हैं। नोबल पुरस्कार-विजेता जॉन स्टीनबेक के उपन्यास फट ६81
का आप द्वारा “अमोलक मोती” शीर्षक से राजस्थानी रूपान्तर बड़ा ही सुन्दर बन
पड़ा है।
प्रस्तुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की प्रस्तावना लिखने का कृपापूर्ण अवसर जो मुझे
उन्होंने दिया है, उससे मैं वास्तव में आज गोरवाभिभूत अनुभव कर रहा हूं। ठीक
तीन दशक पूर्व मैंने नाथ-सम्प्रदाय के अन्य अनुयायी, नाथ-भक्त कवि और
अदभुत मनीषी जोधपुर-नरेश म. मानसिंह के व्यक्तित्व-कृतित्व॒ पर शोध-
उपाधिपरक कार्य किया था। नाध-सम्प्रदाय के दर्शन और साहित्य के महार्णव में
अवगाहन का मुझ तब कुछ अवसर मिला था। जालोर का श्रीजालंधरनाथ-पीठ
'सिरे मन्दिर' म. मानसिंह की पूजास्थली रही है। इसी मन्दिर से उनके विषादग्रस्त
जीवन के शुभंकरी उत्थान का श्रीगणेश हुआ। वे अनन्य नाथ-भक्त थे। उन्होंने
श्रीजालंधरनाथ की स्तुति, वंदना और आराधना में कई कृतियों की : रचना की।
कलशाचल पर अवस्थित इस सिरे मन्दिर की चतुर्दिकू प्राकृतिक सौन्दर्य मध्य
रमणीक शोभा का उन्होंने अपनी कृतियों में भावमय वर्णन किया है। तब मेरी
इच्छा हुई थी कि अपने शोधनायक की इस पूजास्थली के दर्शन कर्खे; उस पावन
. पार्वत्य अंचल को नमन करूँ; जहाँ नाथ-सम्प्रदाय के नवनाथों में आदरणीय
. श्रीजालंधरनाथ ने योग-साधना की थी। मुझे यह सौभाग्य नहीं मिला। आज डॉ.
शर्मा द्वारा रचित इस ग्रंथ ने परोक्ष रूप से मेरी उस चिरसिंचित आकांक्षा को कुछ
अंशों में पूरा कर दिया। इस ग्रंथ का अवलोकन कर मैं धन्य हुआ हूँ।
_ जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है, नाथ-सम्प्रदाय पर तो काम हुआ है;
किन्तु नाथ-योगियों के सिद्धस्थल “श्रीजालंधरनाथ-पीठ, सिरे मन्दिर' पर इतने
विस्तार से सांगोपांग शोध और लेखन-कार्य प्रथम बार ही हुआ है; स्फुट भा लेख
अथवा प्रासंगिक उल्लेख भले ही इस स्थान के महत्त्व को लेकर हुए हों।
लेखक डॉ. शर्मा ने इस ग्रन्थ को छः परिच्छेदों में सुनियोजित किया है --
. 1 .नाथ-सम्प्रदाय : एक विवेचन, 2. श्रीजालंधरनाथ-पीठ : सिरे मन्दिर, 3. मैं.
.. मानसिह : नाथ-सम्प्रदाय को. अवदान, 4. श्रीजालंधरनाथ
8
5. श्रीजालंधरनाथ-पीठ : गुरु-परम्परा और 6. परिशिष्ट। अन्त में कृति को.
अधिक सर्वांग उपयोगी बनाने के लिये संदर्भ-ग्रंथ-सूची (हस्तलिखित एवं मुद्रित) भी दी है ।नाथ सम्प्रदाय : एक विवेचन ' में ' नाथ ' शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ , द्वादश पंथ , नव नाथ , चौरासी सिद्ध आदि का उल्लेख करते हुए लेखक ने नाथ - योगी की वेशभूषा इत्यादि की जानकारी दी है । संक्षेप में यह अध्याय इस ग्रंथ की पीटिका प्रस्तुत करता है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति ‘ नाथ सम्प्रदाय ' के साथ इस विषय पर विदेशी देशी अन्य जिन विद्वानों ने कार्य किया है , उनके यथावश्यक संदर्भ देकर लेखक ने इस अध्याय को प्रामाणिक बना दिया है । मेरी दृष्टि से इस पुस्तक के मूल अर्थवान अध्याय तो तीन ही हैं - श्रीजालंधरनाथ पीठ : सिरे मन्दिर , श्रीजालंधरनाथ : चमत्कार - लीला और श्रीजालंधरनाथ - पीठ : गुरु - परम्परा । लेखक का प्रमुख अभिप्रेत इन अध्यायों में परिपूर्ण होता है । ‘ म . मानसिंह : नाथ - सम्प्रदाय को अवदान ' अध्याय भी निश्चितू रूप से इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण अध्याय कहा जायेगा , क्योंकि यह म . मानसिंह की धर्मस्थली - पूजास्थली रही और उनके भाग्य के सूर्य का उदय यहीं से हुआ । उन्होंने अपने इष्ट श्रीजालंधरनाथ एवं नाथ - गुरुओं की जिस अटूट निष्टा और अनन्य भक्ति तथा समर्पण - भाव से तन - मन - धन न्यौछावर करते हुए सेवा की , वह अद्भुत है । नाथ सम्प्रदाय को जो उनका अमूल्य अवदान रहा - वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है । संभवतः लेखक ने इसी उद्देश्य से इस अध्याय को इस ग्रंथ में दिया है । इससे ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ी ही है । । | श्रीजालंधर्नाथ पीठ : सिरे मन्दिर , श्रीजालंधरनाथ : चमत्कार लीला और जालंधरनाथ - पीट : गुरु - परम्परा नामक अध्याय इस ग्रंथ की हृदयस्थली और आत्मा हैं । इन तीनों अध्यायों में श्रीजालंधरनाथ - विषयक अत्यन्त प्रामाणिक सामग्री परिश्रमपूर्वक एकत्र कर विद्वान लेखक ने एक स्थान पर संजोई है । हस्तलिखित ग्रंथों के प्रमाण देकर लेखक ने अपने सभी कथन पुष्ट किये हैं । श्रीजालंधरनाथ - पीट का स्थापत्य क्या है , वहाँ कैसे भवन हैं , मन्दिर का सौन्दर्य कैसा है - आदि के साथ शिलालेख , सेवा - विधि , कीर्तिगान आदि का विवेचन भी इस अध्याय में है । ' चमत्कार - लीला ' अध्याय में श्रीजालंधनाथ व अन्य नाथयोगियों के विविध चमत्कारों का वर्णन है । इतिहास - पुरुषों के अतिरिक्त साधारण जन , जो नाथयोगियों की सिद्धियों और चमत्कारों से प्रभावित हुए , उनके दृष्टान्त इरा । अध्याय में देकर लेखक ने नाथयोग की जीवन्तता और सामाजिक उपयोगिता सिद्ध की है । ‘ गुरु - परम्परा ' वाले अध्याय में इस पीठ पर जो नाथयोगी आसीन हुए , उनकी परम्परा का इतिहास - प्रमाणित उल्लेख करते हुए , इस पीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर पूज्यपाद श्री शान्तिनाथजी का व्यक्तित्व - परिचय लेखक ने दिया है । । इस प्रकार ‘ श्रीजालंधरनाथ पीठ , सिरे मन्दिर ' पर प्रस्तुत यह इतना विवेचना पूर्ण और विस्तृत प्रथम ग्रंथ है , जो सभी दृष्टियों से सम्पूर्ण प्रतीत होता है । विद्वान लेखक निश्चित रूप से साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने न केवल एक अधार पूर्ति की है , अपितु नाथ सम्प्रदाय , उसके दर्शन , उसके विपुल साहित्य व अदर गुमनाम - प्रायः प्रसंगों की खोज कर उन्हें उद्घाटित करने की प्रेरणा भी दी है ।