🚩सिरे मंदिर‌ जालोर के सिरमौर पीरजी श्री1008श्री शांतिनाथ जी महाराज की कृपा दृष्टि हमेशा सब पर बनी रहे सा।🚩🌹जय श्री नाथजी महाराज री हुक्म🌹🚩🙏🙏">

श्री जालंधरनाथ - पीठ : सिरे मन्दिर

श्री जालंधरनाथ - पीठ : सिरे मन्दिर



 राजस्थान राज्य के दक्षिण - पश्चिमाँचल में जालोर जिला अवस्थित है । इस जिले का मुख्यालय जालोर है , जो ‘ स्वर्णगिरि ' संज्ञक पर्वत की छत्रछाया में बसा प्रोज्ज्वल अतीत का धनी नगर है । । इस नगर के प्राचीन अवशेष यहाँ झरणेश्वर महादेव के समीप यत्र - तत्र छितरे पड़े हैं , जिसे ' पुरा ' कहते हैं । इस नगर से सटे हुए से , पश्चिम में आये हुए स्वर्णगिरी एवं कलशाचल पर्वत - द्वय की मध्यवर्ती उपत्यका में किसी समय यह आबाद था तथा मारवाड़ के नव - कोटों में इसकी प्रतिष्ठा थी । | प्राचीन ऐतिहासिक एवं साहित्यिक स्रोतों में इस नगर के जाबालिपुर , जाबालिनगर , जालउर , जालप , जाल्योधर , जाल्योद्धर , जालंधर , जालंधर , जालीपुर , जालीन्धर , जालुर इत्यादि नाम मिलते हैं । इस जालोर के समृद्ध अतीत का प्रशस्ति - गान अनेक ग्रंथों में उपलब्ध होता है । विशेषकर इस नगर का विस्तृत और चित्रात्मक वर्णन महाकवि पद्मनाभ विरचित ‘ कान्हड़दे प्रवन्ध ' में तो बड़ा ही अनूठा एवं अवलोकनीय बन पड़ा है । जिनहर्षगणि ने इसीलिए इस वैभवशाली नगर को इस मरुस्थली के प्रशस्त माल पर सुशोभित तिलक की संज्ञा से उपमित कर इसका अभिनंदन किया है - इतो मरुस्थलीभालस्थलीतिलकसन्निभे । जावालिनगरे स्वर्णगिरिशृंगारकारिणि । । 374 । । स्वर्णगिरी एवं कलशाचल जालोर नगर से पश्चिम दिशा में सटा हुआ पर्वतीय भाग , राजस्थान के मानचित्र में हृदय - रेखा - सी खिंची अरावली पर्वत - माला का ही इधर प्रसरित अंश | यह ‘ बेवड़ा ' या ' दोवड़ा भाखर ' ( दो समानान्तर श्रेणियों वाला पर्वत ) है । लोक में यह एक ही पर्वत माना जाकर ‘ स्वर्णगिरि ' या ' कणियागिर ' संज्ञा से विभूषित किया गया है । यह लोक - भावना साहित्य एवं इतिहास में भी प्रकट हुई है । । सिरे मन्दिर सम्बन्धी हस्तलिखित सामग्री के अवलोकन के समय मुझे प्रहरी - द्वय - सदृश इन पर्वतों के भिन्न - भिन्न नाम एवं वर्णन प्राप्त हुए थे । जालोर नगर से पश्चिम में सटा पर्वत ‘ स्वर्णगिरी ' है और इसी पर ‘ स्वर्णगिरी दुर्ग ' है । इससे पश्चिम में इसका समानान्तर , सहोदर - तुल्य पर्वत ‘ कलशाचल ' है और इस पर ‘ सिरे मन्दिर ' सुशोभित है । प्रस्तुत सामग्री को इस तथ्य के परिप्रेक्ष्य में ‘ स्वर्णगिरी ' एवं ' कलशाचल ' शीर्षकों में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है । 
स्वर्णगिरी

 : इस पर्वत की पूर्वी तलहटी में जालोर नगर बसा है । ‘ स्वर्ण - माक्षिक ' आभा लिए प्रस्तर - खण्डों एवं रज - कणों के कारण यह संभवतः ‘ स्वर्णगिरि ' संज्ञा का अधिकारी बना है । वर्षा ऋतु में पानी के साथ बहकर आए इन पीताभ प्रस्तर - अंशों को आज भी देखा जा सकता है । | यह ज्वालामुखी - श्रेणी का प्राचीन पर्वत है । पुरातत्त्ववेत्ता बोयलो के अनुसार इसमें सीसा , लोहा , तांबा प्राप्त था । बहुत संभव है , प्राचीन समय में इन धातुओं के साथ यहाँ स्वर्ण की उपस्थिति भी हो । नामकरण की पृष्ठभूमि में कोई न कोई प्रयोजन अवश्य निहित रहता ही है । भाषा - भेद से शिलालेखों एवं ग्रंथों में इस पर्वत के लिए कणयगिर , कणयागिर , कणयाचल , सुवणूणगिरि , सोनगिर , सोनलगिर , सोवनगिरि , सौवर्णगिरि , स्वर्णगिरि , स्वर्णशैल , हेमगिर , जालोरगिर आदि शब्द भी व्यवहृत हुए हैं । इसे जलंधरनाथ बावजी रा भाखर ' भी कहा गया है । यह स्वर्णगिरि समुद्री सतह से 638 मीटर ऊँचा है और आसपास के क्षेत्र से 475 मीटर ऊँचा । पुरातन काल में इस पर्वत पर जावालि ऋषि का आश्रम था - । कणयाचल जगि जाणीइ ठाम तणउँ जाबालि । । 7 । । और उन्हीं का नामधारक पाप - नाशक कुंड भी - करू सनान कुंडि जावालि । पूइ पाप केतलइ कालि । । 225 । । गढ़ ऊपरि कुंयरि तिणि कालि । करइ सनान कुंडि जावालि । । 226 । । गढ ऊपर जल ठाम विसाल । झालर वाव कुंड जावालि । । 24 । । | कवि ताराचन्द व्यास ‘ नाथानंद प्रकाशिका ' में इस हेमगिरि की भव्यता इस प्रकार चित्रित करते हैं प्रचंड अद्वि ओपित प्रथूल लंब भासिते । । उतंग सुंग दिप्यमान मेर - हुलासितं । किधीं पहार वंध्य - सीं हिमाचलं प्रतच्छयं । । | मनी मिनाक टूण - सौ किलास रुद्र लच्छयम् । । 6 । । । अर्थात् यह ( हेम - ) पर्वत अपनी प्रचण्डता से सुशोभित , दीर्घ विस्तार से शोभित , ऊँचे शिखरों से देदीप्यमान , ( देखने वालों के चित्त को ) सुमेरु पर्वत के समान उल्लसित ( अह्लादित ) करता है । इसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि ) यह विंध्याचल है अथवा हिमालय की प्रतिच्छाया है । यह पर्वत मानो मैनाक या द्रीण पर्वत के समान है या शिव के निवास कैलाश को प्रतिलक्षित करता है । । 16 । । । एक अज्ञात कवि अपनी भावना गीत के माध्यम से व्यक्त करता हुआ लिखता है सोनगिर सुंग जग भाखरां सिरोमण , धिन उमंग जन मग पाव धरंता । । सिद्धपती सुथांनक पदंबुज सोहिया , क्रांत मन मोहिया दरस करंता । । 2 । । उधरां करां निरभै करण आपरां , पेख सेवागरां सुधा पीधा । । नाथ गिर मिंदरां हूत श्री दयानिध , कितां उर मिंदरां वास कीधा । । 4 । । निस्सन्देह श्री जालंधरनाथ ने इस गिरि - मंदिर में विराज कर जन - जन के हृदय - मंदिर में निवास कर लिया है । म . मानसिंह ने अपने इष्ट जालंधरनाथ की यहाँ साक्षात् उप - स्थिति ' मानकर इसे ‘ नाथमय ’ ‘ गिरि सिरोमण ' की संज्ञा से सम्मानित करते हुए इस प्रकार पावन उद्गार प्रकट किये हैं समस्त गिरि सिरोमण कंचनगिर । फूल्यों रहत अनूप निरंतर । । वनस्पती तृविध गुण जुक्ता । महाकुंड जित तित अघमुक्ता । । दिस दिस झरत विमल जल झरननि । गिर गुन कवि को सकै वरननि । । महा उतंग अंग दीरघ बहु । सुखद निवास पसू पंखी सहु । । वड पपर आंमली अनूपम । निंब चंदनादिक तरु उतम । । लता व्रच्छ आवरित चहू दिस । तृविधि समीर चलत सोभा तस चंद्रकूप जल मधुर निकट ही । . . . . . धुनि रत गिर मनहर कलनाद । विध विधि सुनियत नाथ प्रसाद । । सुर मुनि जतिवर सिध्ध प्रयोगी । नर नारी पन्नग सिध जोगी । । पसु पंखी अह निस इक वान । रटत जलंधरनाथ नाम । । घाटी विकट चढाव उतंग । कहुं भूमि सां मैदान सुरंग । । । फिर चढाव सिखराव्रत दरी । नर्तत जहां नित प्रत सुर परी । । अनेक मुनि सिध्धानां निवासी नितरां जहां । । सर्वगिर नाथमय रम्यं सत्यं सत्यं वदाम्यहम् । । इसी स्वर्णगिरि पर इतिहास - विश्रुत दुर्ग है ‘ स्वर्णगिरि - दुर्ग ' अपनी सुदृढ़ता में अनुपम और सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण । दुर्ग के भीतर दुर्ग - सा प्रतीत होने वाला यह ‘ सोनलगढ ' ' गरीब की पूंजी की तरह पहाड़ी श्रेणियों के कठोर आँचल में यत्नपूर्वक सिमटा हुआ है । इतिहास इसकी साक्षी देता है कि यह स्वर्णगिरि दुर्ग जातीय - अभिमान , देश - प्रेम , आत्मविश्वास , स्वातंत्र्य - भावना , धर्मनिष्ठ - उदारता एवं राजस्थानी - रक्त की गौरव - गरिमा का अप्रतिम प्रतीक है , साकार संस्करण है । स्वर्णगिरि का यश - गान करते हुए श्रीनाथतीर्थावलीस्तोत्र ' कार लिखते हैं - कनकाद्रिरिवात्युच्चैः राजते कनकाचलः । अधस्तात्तस्य नगरी जालपाख्याऽतिविस्तृता । । 12 । । अर्थात् सुमेरु पर्वत के समान अत्यधिक ऊँचा यह कनकाचल अत्यन्त शोभायमान हो रहा है । उस पर्वत की तहलटी में जालप नाम की अति विस्तृत नगरी है । । 12 । । । 2 . कलशाचल : इस स्वर्णगिरि के पश्चिम में थोड़ी ही दूरी पर इसके समानान्तर यह पर्वत आया हुआ है , जिसे नार्थ - सम्प्रदाय के ग्रंथों में कलशाचल या कुंभाचल कहकर । अभिनंदित किया गया है कणीयागर जोड़े कळस , परबत विषम पाहाड़ । जोगेसर आया जठे , झंगी अणथग झाड़ । । 68 । । भारतीय धरातल पत्रकों में इसे ' रोजा भाखर ' कहा गया है ।
यह पर्वत समुद्र - तल से 736 मीटर ऊँचा है और इसके पूर्वी ढलान पर 646 मीटर की ऊँचाई ( समुद्र - तल से ) पर स्थित है श्रीजलंधरनाथ का तपःस्थल ' श्री सिरे मंदिर ' । । म . भानसिंह इसकी मनहर स्थिति चित्रित करते हुए ‘ नाथ चरित्र ' में लिखते पावन पच्छिम दिस परम , दिव्य महा मरुदेस । । पावन कलसाचल प्रगट , सुर मुनि कहत सुरेस । । 1 । । महागिरनि मैं मुकुट मनि , सब तीरथ सिरताज । । महास्थान दायक मुकत , जोग्य सुधर्म जहाज । । 2 । । पवन नीर द्रुम वेलि पुनि , सिखर कंदरा साज । अरु मुनिजन आसननि तें , राजत हैं गिरराज । । 3 । । मध्य भाग गिर के महा , संजुत शिद्ध समाज । वसत जलंधीपाव वहां , जगदीश्वर जतिराज । । 6 । । श्री जलंधरनाथ के कहीं तीन , तो कहीं चार परम पावन तपस्या - पर्वत नाथ - ग्रंथों में माने गये हैं “ त्रय तेजात्मक मुख्य स्वरूप श्री जलंधीपावजी री समुद्र में दश महाविद्या करि सेवित आगे कह्यी सो उण स्वरूप राजा हरिचंद रोहितास प्रथ्वी विषै पधारण री प्रारथना की जद सतजुग रै विषे पधार उण राजा री मनोकामना सिद्ध कर गिरनार पर्वत रै विष विराजता हुवा सो प्रथम स्थान प्रथवी विषै औ हुयी । पछे मानधाता राजा री प्रार्थना सुं कलसाचल विराज ने राजा तपसा कीनी थी । सो जोग सिद्धी दे आप पण चन्द्र सूरज ने दोनु वाजू राख कपाली आसन कीयौ । कोई काल उठे जोगाभ्यास कर कलसाचल रै मध्य भाग में विराजता हुवा सो स्थान दूसरी हुयी । चंद्रकूप सूरजकुंड कपाली आसन समेत औ स्थान प्रतिय है । पठे राजा अजैपाल री प्रार्थना सु रक्ताचल विराज्या अजैपाल मसिद्ध हुवा रक्ताचल विप पंचकुंडधी जलंधी गंगा प्रगट हुई औ तीसरी स्थान प्रसिद्ध है । इस तरह कलशाचल उनका द्वितीय पावन तपस्या - रथल है । श्री जगरनाथ ने यहाँ कलशाचल पर कपाली श्रम स्थापित किया सिरे मन्दिर आसण कपाली कर आप । जपीआ मुनी अजपा जाप । । के वृष ओथ तपस्या कीध । लुळ सर प्रभु अग्या लीध । । 72 । । । निज उद्यापी नाथ गिर , कापाली सिख्यर । । । ओपै घण दोळा अनड़ , बौहळा तर झंगर । । यह ( कलशाचल ) क्षेत्र पावपंथी ( योगियों ) का परम पावन आदि स्थान है - आदिभूस्तत्परं क्षेत्रं पावनं पावपंथिनाम् । । १ । । अतः नाथ - भक्त कवियों ने इसका बहुत महिमा - गान किया है - महा कपाली सिखर मनि , वहां चढे उहि वार । । उतरे सिर पर तें अवस , भव भव को अघ भार । । 5 । । धन देस जिहां गढ़ कंचन कै पर धांम कपाली को आसन छाऐ । । धन ध्यान धरै निज सेवग व्यै सोई उया चरनां जाय सीस नवाऐ । । धन व्रच्छ विहंग नजीक रहै नित नाथ ही नाथ कहै लिव ल्याए । धन धन सोई नर व्या जग मै सिध नाथ जलंधर के गुन गाऐ । । 10 । । । तर जूथ घने जु लता लपटी सु माहागिर विमर किंदर है । । कपि कोकिल कीर कुलंग कपोत मयुर के सोर अनंतर है । । धन य्या छिब ही तै कपाली को आसन ईस निवास ते सुंदर है । इन रूप सदा उपमान ही ये सु निरंतर नाथ जलंधर है । । 14 । । श्रीनाथतीर्थावलीस्तोत्र में तीर्थ - वर्णनक्रम में सर्वप्रथम जालंधर ( जालोर ) और कलशाचल का ही स्मरण किया गया है - । तत्रादौ मरुदेशांतर्देशोजालंधराभिधः । । कलशाचलनामाद्रिस्तत्र संतिष्ठते महान् । । 3 । । अर्थात् ( उस ) तीर्थ - वर्णन - क्रम में सर्वप्रथम मरु देश के अंतर्गत ' जालंधर ' नामक स्थान का वर्णन करता हूँ । वहाँ कलशाचल नामक एक विशाल पर्वत विद्यमान है । । 3 । । ‘ नाथ - चरित्र ' में कलशाचल की स्तुति इस प्रकार की गई है 
अनंत मुनिसिद्धसं लसतशृंगयत्कंदरा , सुरासुरगणा अहोरयनकिन्नराद्यप्सराः । । समीरसहगानसंनृतनिनादतीर्थामलं , । निवासअभिलाषितप्रिय नमामि कुंभाचलम् । । 1 । । । अर्थात् दिन - रात अनंत मुनियों और सिद्धों से सुशोभित श्रृंग एवं कंदरा वाले , देव और असुरों से विलसित , किन्नरादि और अप्सराओं के नृत्य एवं गायन की ध्वनि से निनादित तथा ( भक्तों द्वारा ) निवास करने की प्रिय अभिलाषा से युक्त ( इस ) । पवित्र तीर्थ कुंभाचल को मैं प्रणाम करता हूँ । । 1 । । । | श्री जलंधरनाथ के पावन चरण - युगल भारत के जिन प्रख्यात पर्वतों पर प्रतिष्ठापित हैं , उनमें से यह कलशाचल भी एक है । नाथ - भक्त भाव - विभोर होकर प्रार्थना करता है श्रीमदैवतकाभिधे शिखरिणि श्रीसारणाद्री च य द्विख्याते भुवि नन्दिवर्द्धनगिरी सौगंधिके भूधरे । | रम्ये श्रीकलशाचलस्य शिखरे श्रीनाथपादद्वयं भूयात्प्रत्यहमेव देव ! भवतो भक्त्यानतं श्रेयसे । । अर्थात् शोभायुक्त रैवतक पर्वत , श्रीसारणादि , पृथ्वी पर विख्यात नन्दिवर्धन गिरि , सौगन्धिक भूधर तथा रमणीक श्रीकलशाचल के शिखर पर ( स्थित ) श्रीनाथ के चरण - युगल हे भगवन् ! मुझ ( जैसे ) विनम्र भक्त के लिए प्रतिदिन कल्याणकारी हों । | यह समरत ‘ कुंभाचल ' संज्ञक पर्वत नाना भाँति की सघन वनस्पति से पूर्णतः आच्छादित था । म . मानसिंह ने तत्समय की नयनाभिराम नैसर्गिक शोभा को चौपाई छंद में निबद्ध कर इस प्रकार प्रस्तुत किया है - वन सघन लसत मनु घन विलास । संचरै नांहि रवि रश्मि रास । । । जग ताप हरत अति सुखद छाँहि । लख ललित छटा मुनिगन लुभांहि । । 1 । । केली कदंब करुना असोक । सहकार बहाल लख मिटत सोक । । । जाती फल जांबू नालिकेर । वट पीपर मति एवं हरित हेर । । 2 । । । पाडर पुनरायन तरु तगार । तहां सखे बकायन सरिस तार । । । चंदन अगरतीया कुंद चारु । सीताफळ चंपक अरु अनारु  कचनार नागलतको लवंग । थलकल मल्लिका मिलत संग । । । केतकी जही केतक रु जाय । चंबेळ माधवी वेळ राय । । 4 । । केसर मनोग्यकारी जु कीन । रितराज वसे नित छबि नवीन । । । प्रफुलतहि गुल्म जित नव प्रकार । थळ सकल हरित सुख करत सार । । 5 । । । नारंगी नींबू दाख फेर । एळाह बास बहुरचीं कनेर । । रविमुखी दावदी पुन पलास । नाफुरमा नरगस आसपास । । 6 । । । नाना पुष्पों को सहलाता ससौरभ समीर , मकरंद की मस्ती में मँडराते - मचलते भ्रमर - झुड , मनमोहक कर्णप्रिय कलरव करते कोकिल - कोक - कुलंग - बतक - बटेर पारावत - सारस - सारिका आदि के समूह , नृत्यलीन मयूर , शाखाओं पर फलांगते । लंगूर , कुलांचे भरते मृग , प्रकृत बैर - भाव विस्मृत कर इस तपोवन के पावन परिवेश में निर्द्वन्द्व विचरते मोर - भुजंग तथा केहरी - कुरंग आदि वन्य जीव - - सब यहाँ । अद्भूत परिवेश की सृष्टि करते हैं - मंजुरी स्रवत मकरंद पुंज । अलि - माला झूमत गूंज गुंज । । । वडह कुसम पूरत पराग । पल्लव दळ फळ मिल जेब जाग । । 7 । । सौरभत मंद सीतल समीर । कोकला कहक क्रत सोर कीन । । । चलचंच कोक सारस कुलंग । सारिका बतक कलहंस संग । । 8 । । विचरत चरणायुध पुन बटेर । पारावत मिल थळ रहे घेर । । । वानी अनेक कुजत विहंग । नाचत मयूर आनंद अंग । । 9 । । रस स्याम प्रगट क्रत विटप आंन । रस उजळ कारन यह वखान । । देखियै भूर लंगूर भाल । साखा उलंग कपि लेत फाल । । 10 । । । गवधनुष ससस चित्रक वराह । मृग महक सुरभि आवर्त चाह । । । केकी भुयंग केहर कुरंग । आसन प्रभाव विन वैर संग । । 11 । । । आनंदमई जंहि अवनि साज । राजत है मांनहु राम राज । । नभ छुवत संग गिरकळस उद्ध । उपमा जंहि सोधत सुकवि बुद्ध । । 12 । । । विविध वनौषधियों का इस पर्वत को वरदान प्राप्त है - वंध्याचल मंदर मलय तूल । निरझरन पात वाजत समूल । । । ओषधी विविध उपजे अनूप । दरसैं प्रतच्छ गिर द्रोन रूप । । 13 । । । और यहाँ के पावन परिवेश का तो कहना ही क्या ? सिद्ध - मुनियों की सतत उपस्थिति से यहां का अणु - अणु आध्यात्मिकता से ओतप्रोत है । म . मानसिंह परंपरित वर्णन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं किन्नरों का मुनि तप तर्पत । किन्नरों कहू मुनि जप जपंत । । । किन्नरों कॅटू अद्वैतवाद । अध्ययन करत मुनि अप्रमाद । । 14 । । ।
किन्नरां कंडू मुख स्रुत मृजाद । किंनरा कहूं हुवै संख नाद । । । किंनरा के अष्टांग जोग । अभ्यासत जोगी नसत सोग । । 15 । । किन्नरां कंहूँ मति समृति शुद्ध । चरचें मुनींद्र पावन प्रबुद्ध । । किन्नरां कंहूँ श्रुत रिचा सार । मुनि पढत वटत सुक्रत विचार । । 16 । । मुनि कलित अद्र यह शोभ देत । मनु रत्नसानु सुरगन समेत । । अति शिखर कपाली से उतंग । तप तपत दिगंबर सलिल संग । । 17 । । प्रकृति - प्रदत्त ऐसी सघन वनस्पति और उसकी मनोहारी सुषमा से सजे - धजे तथा सिद्धों की साधना से सम्पूर्णतः तपोवन बने रमणीय कलशाचल ' के मध्य भाग में अवस्थित मुकुट - मणि सदृश ‘ सिरे मंदिर ' सुशोभित है रवि कुंड नसावन जगत ताप । जल विमल पूर महिमा अमाप । । भू गोल प्रगट जहि मध्य भाग । मंदर विसाल जस जोति जाग । । 18 । । धुजडेड वजा मंडत प्रतच्छ । सतकेत नाव मनु संग मच्छ । । उर उक्ति प्रकासत सुकवि आंन । विंजना मनहूं दिव के बखान । । 19 । । शुभिहीं न किधौं अतिसय उमंग । परसत प्रसाद की गगन गंग । । सिर कलस कनकमय क्रांत ढेर । कयलास टौंक पर टैंक मेर । । 20 । । वस वात कलस सों वार वार । धुज लपटत उपटत छबि उदार । । पूरन भनु सिद्धेश्वर प्रताप । तहिं मिलत किंच सिद्धयेस आय । । 21 । । थिर मंडप मंडित भये खंभ । ज्यों कृस्न बाहु गिर रहे थंभ । । । बौह अमल फटकमय फरस बंध । पयनिधि उमंड फैल्यौ प्रबंध । । 22 ॥ दीपत दवाल वहुंधां दराज । दिग थाढी मानहुँ देह साज । वनमाला तोरन द्वार वंद । जस मौर मनहूं बांध्यौ अमंद । । 23 । । । और इसमें विराजमान हैं ब्रिताप - नाशक सिद्धों के सिद्ध श्रीजालंधरनाथ । उनके अद्भुत रसरूप का भाव - विह्वल यह बिंब अवलोकनीय है - वित्रत पवित्र बहु प चित्र । मनिहु विधि रचना वसी मित्र । । सव यौरा ह सुभा राग । । जोग विराजे सिद्धराज । । 24 । । सभेत विसतरी जटा शीरा । म सुतर लतका निरास । । अति और टोप से गुहार । प्रफुलत हुनै जान दरस पा५ । । 25 ।
शुभ वानक केसर खौर भाल । शशि भेस श्रवण मुद्रा रसाल । । । मुख मंद हास आनंद मूल । शृंगी ध्वन सरसै सुधा तूल । । 26 । । । ओढे सुढार कंथा उदार । धन प्रभुता मेखल कंठ धार । । मंदार कुसम अविलंब माल । जल पूर कमंडळ कर विसाल । । 27 । । । वपु यी विभूत की छटा फैल । कोमदी मनहु मनि नील सैल । । । वंदत त्रिलोक चरणारविंद । नख राजी मानहु वृंद चंद । । 28 । । कोटिक प्रयाग से पूज मांन । अघहरन लेत जग सरन आंन । । 29 । । इस पावन पर्वत पर अनेक सिद्धों के तपस्यारत रहने के उल्लेख यत्र - तत्र प्राप्त होते हैं । ‘ श्रीनाथतीर्थावली ' कार लिखता है आरुह्य शिखरं तस्य जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । कनीपावो महासिद्धः कणेरीपाव एव च । । 7 । । हरितालीपावहालीपावाद्या योगिनोऽपरे । अस्मिंस्तीर्थवरे शैले स्थितिमापुर्निरंतरम् । । 8 । । आदिभूस्तत्परं क्षेत्रं पावनं पावपंथिनाम् । । गिरिनारात्पुण्यगिरेमेलनाथोऽपि योगिराट् । । 9 । । । योगसिद्धोवरं लब्ध्वा तत्रैवागत्य तस्थिवान् । । श्रीजालंधरनाथांघ्रिराजीवं सेव्यन्सुखम् । । 10 । । पूर्वमत्रैव मांधाता तपस्तप्त्वातिविस्तरं । । लेभे मनोभिलषितं वरं श्रीनाथपादतः । । 15 । । अर्थात् इसके ( कलशाचल के ) शिखर पर चढ़कर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है । वहीं पर कनीपाव महासिद्ध हुआ और वही कणेरीपाव है । । 7 । । हरितालीपाव , हालीपाव आदि अन्य योगियों ने भी तीर्थ - श्रेष्ठ इस पर्वत पर निरन्तर निवास किया । । 8 । । यह श्रेष्ठ एवं पवित्र क्षेत्र पाव - पंथियों का परम पावन आदि - स्थान है । पुण्य पर्वत गिरिनार से योगसिद्ध मेलनाथ भी । । 9 । । वर प्राप्त करके वहीं पर । ( कलशावल पर ) आकर श्री जालंधरनाथजी के चरण - कमलों की सेवा करते हुए । सुखपृर्वक रहे । । 10 । । प्राचीन समय में मान्धाता ने यहीं पर दीर्घ तपस्या की थी । एवं श्रीनाथ - चरण की कृपा से अपने अभिलषित वर को प्राप्त किया था । । 15 । । । अन्य योगरत सिद्धों में संझ्यानाथ , मेलनाथ , थाननाथ , गोविंदनाथ , कपूरनाथ , वनाथ , नादानाथ , साडापात , केसरीपाव , महेरापान , देवपात , हरीपार , डाऊनाथ इत्यादि के नाम लिये जा सकते हैं ।
 राताहूँढा से आकर श्री सुवानाथजी ने भी यहाँ साधना की और फिर इस वैराग - पंथ की परम्परा में श्रीभवानीनाथजी , भैरुनाथजी , फूलनाथजी , पृर्णनाथजी , केसरनाथजी , अमरनाथजी , भोलानाथजी तथा इनके शिष्यों - प्रशिष्यों ने यहाँ योगाभ्यास किया । इस समय वर्तमान पीठाधीश्वर श्री शांतिनाथजी एवं उनकी शिष्य - मंडली – श्रीकमलनाथजी , श्री गंगानाथजी , श्री किशननाथजी , श्री वीरनाथजी आदि योग - साधना - रत हैं एवं नाथ - धर्माचरण का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं । इसी कलशाचल पर श्री जालंधरनाथ की साक्षात् विद्यमानता में श्री गुरुकुल भी अत्यन्त सम्मान के साथ अधिष्ठित है श्रीमज्जालंधरोनाथस्साक्षात्तत्र विराजते । तत्रैव श्रीगुरुकुलं विराजतितरां परम् । । 4 । । गगन से स्पर्धा करने वाले शिखर - युक्त कलशाचल के निकट उनसे ( मेलनाथ से ) प्रारंभ होने वाला गुरु - कुल ( गुरु - परम्परा ) विस्तार को प्राप्त हुआ - | तन्मूलकं गुरुकुलं तत्र विस्तारतां गतं । गगनस्पर्धिशिखरं समया कलशाचलम् । । 11 । । । इन दोनों ( स्वर्णगिरि एवं कलशाचल ) पर्वतों की उपत्यका में ( यह ) गुरु - कुल आसन है । यहाँ पर भी श्रीनाथजी के अद्भुत चरण - कमल सुशोभित हैं - उपत्यकायामनयोरट्योर्गुरुकुलासनम् । । चकास्त्यत्रापि श्रीनाथचरणांबुजमद्भुतम् । । 14 । । योगिराज मेलनाथ से प्रारंभ हुए इस गुरुकुल में फिर क्रमशः थाननाथ , गोइंदपाव , साडापाव , केसरीपाव , महेसपाव , देवपाव , हरीपाव , दाऊनाथ हुए ।