🚩सिरे मंदिर‌ जालोर के सिरमौर पीरजी श्री1008श्री शांतिनाथ जी महाराज की कृपा दृष्टि हमेशा सब पर बनी रहे सा।🚩🌹जय श्री नाथजी महाराज री हुक्म🌹🚩🙏🙏">

दर्शनीय स्थल

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 भवर गुफाः । सिरे मन्दिर - परिसर के पश्चिमार्द्ध के उत्तरी कोने में एक विशाल शिलाखण्ड है , जिसके नीचे यह भंवर - गुफा स्थित है । यह गुफा ही महान् योगी श्री जलन्धरनाथ की पावन तपश्चर्यास्थली रहीं है । | भंवर गुफा से अभिप्राय है “ अमर - गुहा ' का , जो योग के अनुसार ब्रह्मरंध्र के नीचे स्थित षट्चक्रों में से एक है । इसे आज्ञा - चक्र भी कहते हैं और यह भू - मध्य स्थित है । | श्री जलन्धरनाथ ने अपनी काया - योग - साधना में इसी “ अमर - गुहा ' का भेदन यहाँ किया था , जिसके कारण यह स्थान भंवर गुफा ' नाम से प्रसिद्ध हो गया । इस स्थान के नामकरण के सम्बन्ध में यह संभावना सत्य के सन्निकट है । यह गुफा नदी के भंवर की तरह गहरी और लंबी - चौड़ी है । प्राचीन समय मेंयह गोलाकार भी रही हो । इस समय इसे मार्बल टाइल्स से सुन्दर कलात्मक रवरूप प्रदान कर आकर्षक बना दिया गया है । । मन्दिर के समतल आँगन से पाँच सीढ़ियाँ नीचे उतरने के पश्चात् गुफा के सामने निर्मित 9 / 2 ' x 17 , ' लंबा - चौड़ा बरामदा है । यहाँ इसके दोनों पाश्र्यों में आरती के समय बजाये जाने वाले दो विशालाकार नगारे रखे हुए हैं । | गुफा का द्वार पूर्वाभिमुख है , जिसके सामने ही बरामदे में 2 ' लंबा , 9 " चौड़ा तथा 1 . 7 ' ऊँचा श्वेत संगमरमर का कलात्मक नंदी है । भीतर से गुफा 114 ' x 74 ' लंबी - चौड़ी है । ऊपर शिलाखण्ड की ही छत है । इसकी द्वार के समीप ऊँचाई 6 ' है , जो शनैः - शनैः पश्चिम की ओर कम होती गई है और अंततः भूमि का स्पर्श करती है । गुफा - द्वार के बाईं ओर आले में हाल ही में संगमरमर से निर्मित छोटे - छोटे हनुमान , पार्वती एवं गजानंद के विग्रह तथा शिवलिंग रखे हैं । दाईं ओर के आले में मत्स्येन्द्र तथा गोरक्ष ’ की श्वेत संगमरमर की मूर्तियाँ हैं । गुफा के भीतर प्रवेश करने पर सामने ही वेदी पर सुशोभित दो शिवलिंगों के दर्शन होते हैं । इनमें एक प्राचीन है और दूसरा नवीन । प्राचीन शिवलिंग 7 " ऊँचा , 1 . 4 ' चौड़ा तथा 1094 ' ' मोटा है । जालोर के ही ग्रेनाइट पाषाण का बना यह शिवलिंग श्री सुआनाथ द्वारा स्थापित माना जाता है । नवीन शिवलिंग श्वेत संगमरमर का है , जो 1 ' ऊँचा , 1 . 6 ' चौड़ा तथा 1 ' मोटा है और नाग - आकृति पर टिका है । इनके पीछे एक आले में पार्वती की 1 ' ऊँची तथा 64 ” चौड़ी मूर्ति है , जिसके दाईं ओर जलंधरनाथ ( 1 ' 10 " ऊँची x 10 ' चौड़ी मूर्ति ) तथा गणेश ( 1 ' 32 ऊँची x 9 ' चौड़ी मूर्ति ) एवं बाईं ओर कार्तिक स्वामी ( 1 . 3 ' ऊँची x 10 ' ' चौड़ी मूर्ति ) विराजमान हैं । कार्तिक स्वामी कमलासनस्थ हैं और उनके समक्ष मयूर है । ये तीनों ही मूर्तियाँ श्वेत संगमरमर की बनी हुई हैं , नवीन हैं तथा कलापूर्ण भी । । इस तीर्थ - प्रांगण में यह भंवर - गुफा ही प्राचीनतम पुण्यस्थल है , जो योगीराज श्री जलंधरनाथ की तपोभूमि है और जिसके कारण यह स्थान जन - जन का वंदनीय तीर्थस्थल बना है ।
प्राचीन समय से ही इस परम पावन स्थान को श्रीजलंधरनाथ की साक्षात उपस्थिति से प्राणवंत समझ कर पूजा गया है । श्रीनाथतीर्थावलीतोत्रकार कहता श्रीमज्जालंधरोनाथस्साक्षात्तत्र विराजते । । 4 । । । श्री ‘ नाथ भाव पूजा ' में भी ऐसे ही उद्गार प्रगट किए गए हैं – यस्त कनकाचलमध्यदेशे मनोहरे महास्थाने निश्चलासनस्तमुपतिष्ठति अनेकाशिष देवाः पूजा ( ज ) विधातुमनिशं तथाहि वरुणः स्नापयति मलयाचलश्चंदनं वसंतः पुष्पाणि पृथ्वी ( वीं ) दूर्वा धूपं च सूर्यो दीपं सकामधेन्वग्निनैवेद्य चंद्रमा आरार्तिकं पवनश्चामरं कुबेरचोपायनं चेत् पर्यति स्तुवंति चेंद्रादयो देवगणास्तस्मिन् निजनाथरूपे निर्गणे साकारे लीलाधरे श्रीनाथकृपासमुद्रे दिवानिशं पदपद्मरागाभिलाषिणो म ( म ) मनोवसतु विरज्य सर्वस्मात् । । अर्थात् कनकाचल के मध्य भाग में मनोहर महास्थान पर जो निश्चलासन में । विराजमान हैं , उनकी पूजा करने के लिए अनेक अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले देवता नित्य उपस्थित रहते हैं , वरुण स्नान कराते हैं , मलयाचल चंदन , वसंत पुष्य , पृथ्वी दूर्वा और धूप , सूर्य दीपक , कामधेनु के साथ अग्नि नैवेद्य , चंद्रमा आरती , पवन चंवर , कुबेर भेंट अर्पण करते हैं और इंद्रादिक देवताओं के गण उनकी पूजा - स्तुति करते हैं - ऐसे आत्मस्वरूप , निर्गुण - साकार लीलाओं में रमण करने वाले , कृपा - सिंधु श्रीनाथ के चरण - कमलों के पराग का अभिलाषी मेरा मन सांसारिक वस्तुओं में विरक्त होकर निरन्तर उनमें लगा रहे । । इस महास्थान पर पता नहीं कब से यतिराज श्रीजलंधरनाथ अपने अनुपम स्वरूप में सुशोभित हैं , भक्त की भावनानुसार कामनापूर्ति करने वाले कल्पवृक्ष के । सदृश - - - नहिं जानत मुनि शिद्ध नर , कब हैं आसन कीन । बहुत जुगनि तें वास वहां , परम रूप प्राचीन । । 2 । । महाअलौकिक मूरती , सब मैं श्रेष्ट स्वरूप । जास चरन भजि विश्व जन , भए किएहू भूप । । 8 । । । किते स्वर्ग अरु मुक्ति केउ , लहे सरन जिह लाग । चरन कमल तेई चाह सौं , सुर मुनि भजत सभाग । । 9 । । । जे जोगी व्यापक जगत , कृपासिंधु करतार । सरनागत वत्सल सदा अविनासी अधिकार ।
अन्न वसन मुद्रा उभय , विलसत जटा विभूत । । अंगी अरु मृगचर्म सुचि , अंग वेस अवधूत । । 11 । । आप वसत आनंद मैं , निहचल ज्ञान निधान । । धन्य देस वह धन्य भुवि , सो गिर धन्य स्थान । । 12 । । । हित दरसन सेवन जु हित , अधिक एक सौं एक । । जात्री जन बहु जगत के , आवत जहाँ अनेक । । 13 । । जाकौं जैसी कामना , तैसौं फल तिह वार । । पावत तिह कीरत प्रगट , सब जानत संसार । । 14 । । । नाथ नाथ इति नाम धुनि , जात्री जन मुख तें जु । । सुनी पसु पंखीहू सकल , लहि सुख मुक्ति लहैं जु । । 15 । । ' असरन सरन सिद्धेश्वर ‘ सुर नर मन मोहत ' हैं - जटाजूट फबि मुकट , विकट गिरि श्रृंग विराजत । । शृंगी श्रृंगी रंग भुयंग , सेली छबि छाजत । । कुंडल करन उद्योत , चंद्र मंडल जुग जोहत । अरुन वसन शुचि असन , निरख सुर नर मन मोहत । । । सोहत स्वरूप अदभूत अति , तन विभूत उज्वल वरन । जय जयति जलंधरनाथ प्रभु , सिद्धेश्वर असरन सरन । । । । ऐसे श्री जलंधरनाथ के सुयश - प्रताप से समस्त संसार संप्रकाशित है - सुजस जगत जगमगत , भगत रस वस वरदायक । । पावन परम पुनीत , देव नरदेव सहायक । । अष्ट सिद्धि अनुसरत , पाय नवनिद्धि पळेटत । । चारि पदारथ मिलित , भावजुत पद - रज भेटत । । किल विष समुह सोषन सकल , सचराचर पोषन भरन । । जय जयति जलंधरनाथ प्रभु , सिद्धेश्वर असरन सरन । । 2 । । । अतः उनके पाद - पद्यों के दर्शन कर एक भक्त - मानस की कृतकृत्य भावना इन शब्दों में फूट पड़े , तो आश्चर्य नहीं - नाथ तूझ पद निरख , नयण मो थिया अनंदिता । सुण गुण श्रवण पवित्र , सुकर थाया पय वंदित । ।
‌रसणा हुई पवित्र , तूझ गुण कह कवताई । । परक्रमणा दंडवत , देह सुकियारत थाई । । चरणाम्रत तिलक प्रसाद ले , उवर ध्यान सुच जूजची । श्रीनाथ तूझ चरणां सरण , हूं सुनाथ पावन हुवौ । । 21 । । ऐसे ‘ मात पित तात श्रीजलंधरनाथ ' के शरणागत होने की अभिलाषा एक अन्य कवि की शब्दावली में भी पाठक पढ़े - अहो क्रपा दयासागर बिरद वारणा धणी श्री जलंधर जटाधारी । । तांहरा जनां री घणी नित तुझ नै । सरण आयां तणी लाज सारी । । 1 । । । भगत रछपाल करणा समंद भामणा । । प्रभा सोभा मणा सुधा पाबा । । राज रा चाकरां तणी सह राज नै । बांह ग्रहियां तणि लाज बाबा । । 2 । । । दुती पद कंज आनूप छिब अदुती । । भूप त्रभुवनपती रूप मामी । । आपरा थका ज्यांरी सदा आपनै । । जनां फरजनां री सरम जांमी । । 3 । । प्रांण कुरबाण पल पल क दरस पर । मनोहर सुभ निजर दया मोहूं । मात पित जेम सारी अरज माहरी तात श्रीजलंधरनाथ तोहूं । । 4 । । श्रीजलंधरोत्पत्ति का अज्ञात कवि भी ऐसी ही विश्वासभरी वाणी में भाव व्यक्त करता है - तत्रैत्य सर्वसुखदे परमार्तिहर्ता । | ज्ञानात्मना स भयदुद्वसतिं चकार । । सौख्यं निजेष्वखिलभक्तजनेषु कुर्व । न ( ञ ) द्यापि शर्मकृदसौ शुभदश्चकास्ति । । 7 । । अर्थात् ज्ञान - मार्ग से समस्त दुखों को दूर करने वाले , परम आत्म - ज्ञानी , भय का नाश करने वाले श्रीजलंधरुनाथ ने सभी प्रकार से सुख - प्रदायक , ( जालोर ) नगर में आकर निवास किया । अपने समस्त भक्तों को सुख देते हुए कल्याणकारी , मंगल प्रदान करने वाले वे ( श्रीजलंधरनाथ ) आज भी वहाँ ( जालोर में ) विराजमान हैं । । 2 । । । कृष्णावतारमथगम्य यथैव विष्णू ( ष्णुः ) । | रामावतारमथवान्यतमस्वरूप ( म् ) । धृत्वा जगत्त्रयमवत्यनिशं तथैव । नाथों जलंधर इह प्रणिपाति लोकान् । । 8 । । । अर्थात् जिरः प्रकार से भगवान विष्णु ने कृष्णावतार में , रागावतार में अथवा अन्य किसी रूप में प्रकट होकर तीनों लोकों की नित्य रक्षा की , उसी प्रकार ( श्री ) जलंधरनाथ यहाँ ( जालोर ) के लोगों की रात - दिन रक्षा कर रहे हैं । । 8 । । | जन - मानस की ऐसी ही भावना को अभिव्यक्ति देते हुए लोक - भजनकार शंकरलाल प्रजापत लिखते हैं भंवर गुफा में विराजिया , जोगी जलंधरनाथ । । कानां कुंडळ झिलमिले , हिरलौ तपै ललाट । । । गढ जालोर रा राजवी , जोगी जलंधर पीर । । दुर्खियां रा दुखड़ा काटे , साजा राखै शरीर । । अनेक कवियों के ये ऐसे बिंबात्मक वर्णन इस संभावना को भी जन्म देते हैं । कि यहाँ श्रीजलंथरनाथ की भव्य एवं प्रभावोत्पादक कोई प्राचीन प्रतिमा रहीं होगी । चन्द्रकूप : वर्तमान में इसे ' चन्दनकूप ' कहा जाता है , जो ‘ चन्द्रकूप ’ का ही अपभ्रंश है । यह कूप श्री रत्नेश्वर महादेव के ठीक सामने प्रांगण में आया हुआ है । इसे ऊपर से संगमरमर द्वारा गोलाकार ( परिधि 28 ' 8 ' ' ) मढ़ कर तथा ढक्कन लगाकर सुरिक्षत कर दिया गया है । इस पर यह छोटा - सा शिलालेख लगा है । पंक्ति 1 . श्री जलन्धरनाथजी सहाय छै 2 . संवत् 2055 रा जेट सुदी 15 को ‘ चन्दन कूप ' का जीर्णोद्वार श्री 1008 ३ . श्री श्री शांतिनाथजी महाराज द्वारा करवाया गया । दिनांक 10 . 6 . 98