18 . कान्हड़दे , 19 . वीरमदे : | सिद्धेश्वर जलंधरनाथ ने अपने परमभक्त कान्हड़दे को ‘ पोरसा ' एवं वीरमदे को शूरवीरता प्रदान करने की अनुकन्पा कर कृतार्थ किया । म . मानसिंह ‘ जलन्धर चन्द्रोदय में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि “ स्वर्णगिरि ( दुर्ग ) पर एक सोनगरा चौहान राजा हुआ कांनरदे । उसका पुत्र वीरमदे था । इनको सविवेक प्रदान करने की आप ( श्रीनाथजी ) ने कृपा की । कंचनगिरि किले पर इस समय जिस मंदिर में श्रीनाथजी विराजमान हैं , वहाँ दास मान के स्वामी यतीश्वर नाथजी एक दिन स्वयं प्रत्यक्ष पधार कर आ विराजे । ( अनुचर ने ) राजा को सूचना दी कि एक सुख प्रदान करने वाले योगी बैठे हैं । राजा ( कान्हड़दे ) आया और उसने ) चरण - स्पर्श किया । योगी - वेशधारी श्रीनाथजी से प्रभावित होकर राजा का मन नाथ - भक्ति में अनुरक्त हुआ । श्रीनाथजी के दर्शनों से सभी कर्म ( बन्धन ) कट जाते हैं , जन्म - जन्मान्तर की समस्त विपदाएँ मिट जाती हैं । कान्हड़दे ( के भक्ति - भाव ) पर श्रीनाथजी द्रवित हुए और उन्हें ‘ तलीपाव नाम देकर अमर किया ; तथा कहा कि जब तक संसार में राज्य करोगे , इस ‘ पोरसा ' से ( तुम्हारे पास ) द्रव्य स्थिर रहेगा और वीरमदेव को यह कहा कि तुम्हें शूरवीर होने का यश मिलेगा । यह कहकर श्रीनाथ जी अंतर्ध्यान हो गये । राजा ने वहाँ श्रीनाथजी के चरण पधराये । ( तत्पश्चात् अलाउद्दीन खलजी ) सुल्तान से युद्ध किया और संसार में ( उज्ज्वल ) क्षात्र - धर्म को बनाये रखा । वीरमदे की शूरवीरता भी खूब रही । श्रीनाथजी के प्रताप से उसकी टेक रह गई । उसने बादशाह की बेटी से विवाह नहीं किया । उसकी प्रतिज्ञा पूरी हुई । श्रीनाथजी ने स्वयं अपने मुख से वर्णन किया और कान्हड़दे को ‘ तलीपाव ' बनाकर अमर किया । वह अब भी संसार को दर्शन देता है । कंचनगिरि के निकट ही दक्षिण दिशा में सिंधल गाँव है । उस पर्वत और उस गाँव में उसका ( सदैव ) निवास है । वह अहर्निश श्रीनाथजी की आराधना में लीन ऐसे योगी श्रीजलन्धरनाथ हैं , जो पृथ्वी पर ( अपने भक्तों का ) उद्धार करने में लगे हुए हैं । ” कानड़दे को श्रीजलन्धरनाथ की अनुकम्पा से ‘ सोवन पोरसा ' का जो उपहार मिला , उससे कानड़दे ने स्वर्णगिरि पर ‘ सोवनगढ़ ' का निर्माण कराया - ऐसा प्रवाद प्रचलित है । नैणसी लिखता है - ‘ सं . 1301 कानड्दै सोनिगरे जालंधरीनाथ री दवा से सोवनगिर उपर गढ करायो । सेवग दौलतराम का भी कथन है मलियो पोरसौ मन मांन । कानी दुरंग आरंभ कांन । । करवा विमर सिर फिर कोट । चित दरियाव ऐकण चोट । । 92 । । | कान्हड़दे जालोर के चौहान - नरेश सामंतसिंह का सुयोग्य पुत्र था । प्रारंभ से ही इस वीरपुंगव ने सं . 1353 के आसपास अपने पिता का राज्य कार्य में हाथ बँटाना प्रारंभ किया । तत्पश्चात् गुजरात विजय कर लौटती हुई अलाउद्दीन खलजी की फौजों से इसने सोमनाथ एवं अन्य शिवलिंगों को सं . 1355 के आसपास सकराणा में युद्ध कर छीन लिया और अपनी धर्म - आस्था एवं शूरवीरता का परिचय दिया । । सं . 1362 के आसपास कान्हड़दे जालोर के राजसिंहासन पर बैठा । सकराणा युद्ध से अपमानित अलाउद्दीन खलजी ने फिर आगे चलकर कान्हड़दे को सं . 1368 , वैशाख सुदि 5 अथवा सं . 1371 , ज्येष्ठ वदि 10 के दिन हराकर सोनगरा चौहान - राज्य का अंत कर दिया । इस युद्ध के अंतिम दिनों में कान्हड़दे ने श्रीजलंधरनाथ द्वारा प्रदत्त ‘ सोवन पोरसा ' को झालरा में डाल दिया - झालर वावि मांहि अंतेउरि लेई आभरण नाखइ । पुरसउ पाणी मांहि बोलाविउ , गढ मांहि कांई न राखइ । । 235 । । और फिर अलोप हुआ - ‘ संमत 1368 जालोर के गढरोहै अलोप हुवो । । | ऐसी प्रसिद्धि है कि धार्मिक प्रवृत्ति के इस वीर ने जालोर के सुंदरला तालाब का घाट एवं 84 मंदिरों का निर्माण कराया । इनमें से वर्तमान चामुण्डा का मंदिर भी था । कान्हड़दे की उत्कट धार्मिक - निष्ठा के कारण नैणसी ने लिखा है - ‘ राव कानड़दे सांवतसी रो , जालोर धणी हुवो । दसमों सालगराम गोकळीनाथ कहांणो । पद्मनाम भी ऐसा ही भाव प्रदर्शित करते हैं - धन्य धन्य राउल कान्हड़दे , कृष्ण तण अवतार । । 223 । । कान्हड़दे का वीर - पुत्र था वीरमदे - योग्य पिता का योग्य बेटा । यह सं . 1368 , वैशाख सुदि 5 को सिंहासन पर बैठा और यवनों से युद्ध करते - करते