41 . जमियल साह : म . मानसिंह ने अपने ग्रंथ ‘ नाथ चरित्र में इस नाथ - भक्त का परिचय देते बार
हुए लिखा है - " ( गिरनार पर्वत के ) गुरु शिखर ( आबू पर्वत का नहीं , उच्च शिखर से अभिप्राय है ) से आनन्द - मूर्ति श्री सिद्ध जालंधरनाथ ने जगत् के प्राणियों को दर्शन देकर उनके त्रिविध ताप मिटाने हेतु विहार किया । पर्वत से उतरने पर तलहटी में उन्होंने एक दरवेश ( फकीर ) को देखा । उस दरवेश ने श्रीजलंधर की दिव्य छवि को देखकर ( उन्हें ) प्रणाम किया । | यह उसका सौभाग्य ही था कि भाग्यवशात् उसे सिद्धेश के दर्शन हो गये । उसके किन्हीं पूर्वजन्मों के सुकृत्यों के उदय से उसके समस्त मनोभाव आज सफल हो गये । श्री सिद्धेश्वर के चरण - कमलों का स्पर्श करने से कराल कर्म कट जाते हैं , वह ( प्राणी ) निश्चित ही संसार को जीत लेता है , क्षण भर में ही निहाल हो । जाता है । यदि कोई प्राणी ऐसे योगी को निष्कपट मन से नमन करता है , तो उसके ( पता नहीं ) कितने ही ( पूर्व ) जन्मों के कुकर्म और क्लेश कट जाते हैं । संसार के स्वामी योगेश को उसने जो प्रणाम किया , उसके फल का तो क्या कहना ! देवता और शेषनाग भी ( उस फल को ) नहीं कह सकते ।
नहीं । मैं आपसे ) विनती करने योग्य ही नहीं हैं । न मैं ( उत्तम ) वर्ण हैं , और न मेरे पास ( उत्तम ) आचार - व्यवहार हो । मुझ जैसे अत्यन्त अधम का आपने उद्धार कर दिया । ( बस यही कामना है कि ) में रात - दिन आपके चरणों में रहूँ , एक क्षण के लिए भी ( उन्हें ) न छोड़ें । ( आपके चरणों में ही मेरा चित्त लगा रहे - ऐसा विवेकपूर्ण आचरण में करता रहूँ । ” श्रीजलंधरनाथ ने कहा , “ यहाँ ( मेरी भक्ति के लिए ) वर्ण का ( कोई ) कारण ( बन्धन ) नहीं , ( यहाँ तो ) बस भावना ही प्रधान है । तुम्हारे मन में जो इच्छा हो , माँगो ; तदनुसार ( ही ) वह ( तुम ) पाओगे । ' | जमियल शाह ने कहा , “ आपने दर्शन देकर ( मुझे ) सब - कुछ दे दिया । हाँ , अब यह चाहता हूँ कि इस पृथ्वी पर मेरा नाम अमर रहे ; सो हे देव ! वह वर आप दीजिये । " पूर्ण कृपा दर्शाते हुए अखिलेश ( श्रीजलंधरनाथ ) ने ' तथास्तु ' कहा और वहाँ से आगे विचरण करते हुए तत्तद् स्थानों तथा प्राणियों को पावनता प्रदान करते पधार गये । । उसी दिन से जमियलशाह का अंगीकृत ‘ गिरनारी ' नाम पड़ गया और ( नाथजी का ) वह दास ऐसा ही कहा जाने लगा । पश्चिम दिशा के उस समस्त मंडल में सभी नर - नारी ( उसे ) इसी नाम से पुकारते हैं । भील पर प्रसन्न होकर जिस प्रकार शिव वैद्यनाथ ' कहलाए , वैसे ही यतिराज ने यहाँ भी ( जमियलशाह पर ) बड़ी कृपा की । विश्व - सुखकारी कलशाचल - विहारी ( नाथजी ) की , पतितों के पाप हरण कर उन्हें पावन करने की , गति इस प्रकार ( सबसे ) न्यारी है । । ( सत्य है ) जो योगेश ( नाथजी ) समर्थ हैं , ऐसे कर्ता चाहे सो कर सकते हैं । वे चींटी को हाथी बना सकते हैं , ( और ) रंक को राजेश बना सकते हैं । । ( उस गिरनार पर्वत के ) पवित्र उच्च शिखर के निकट ( श्रीजलंधरनाथ के ) पावन चरणों के पास , नैऋत्य कोण में तभी से यह दरवेश ( अमर होकर ) निवास करता है । "
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