🚩सिरे मंदिर‌ जालोर के सिरमौर पीरजी श्री1008श्री शांतिनाथ जी महाराज की कृपा दृष्टि हमेशा सब पर बनी रहे सा।🚩🌹जय श्री नाथजी महाराज री हुक्म🌹🚩🙏🙏">

45 . म . मानसिंह

845 . म . मानसिंह :
सिद्धेश्वर श्रीजलंधरनाथ की म . मानसिंह पर हुई कृपा - वृष्टि का उल्लेख तो तत्समय के प्रायः हर साहित्यकार ने किया है ।
स्वयं म . मानसिंह ने श्रीजलंधरनाथ की अतीव अनुकम्पा से मारवाड़ के राज - सिंहासन का मिलना मान कर उनके प्रति मनसा - वाचा - कर्मणा का अप्रतिम समर्पण - भाव प्रदर्शित किया ।
यह समर्पण - भाव म . मानसिंह की साधना के ऊर्ध्वगामी होने के साथ - साथ प्रगाढतर होता गया और समाधि - दशा ' तक पहुंच गया ।
फलतः श्रीजलंधरनाथ , जो मानसिंह की आँखों में बसे हुए थे , उनके मन में मूर्तिमंत थे ; वे इस समाधि - दशा में उनके समक्ष साक्षात् थे ।
मानसिंह लिखते हैं -
1 . अंखियां आगे रमि रहे , निकट जलंधरनाथ । । अंखिया ही मनु नाथ हैं , अंखियां मांही नाथ । । 1 । । । कबहु मन मुद्रा मही , मुद्रा कबहु मन मांहि । ।
कबहु टोप की छांह तर , मन विश्राम करांहि । ।
2 । । कबहु सिरे मंदिर अधिप , देखतु मांहि समाधि । । कबहु सुभट पुर - वासि - प्रिय , आत्मा कबहु अराध । । 3 । । । आसनस्थ कंचनगिरिस , टाढा सुभट पुरेस । आत्मानाथ विराजितं , बालक वेस विसेस । ।
4 । । 2 .
मैं वारंवार समाधि मांझ ।
देखे जलंध्र नित मौर सांझ
3 , देखे नाथ समाधि में , इक जोगी के रूप । कोने मुद्रा सिर जटा , सुतौ मान के भूप । । 1 । । । इस समाधि - दशा में श्रीजलन्धरनाथ के साक्षात् दर्शन से उन्हें हर नाथ - साधु जलन्धरनाथ का स्वरूप ही प्रतीत होने लगा - देख्न मध्य समाधि , दरस जलंघरनाथ की । । बाहिर देखें साध , उवोहू दरसन नाथ की । उन्हें आत्म - परिचय हो गया - | धन्य धन्य समाघि दिनकर नाथ हरन अज्ञान । । | अबुध आहि स्वरूप अपना में लख्या नृप मान । उन्हें परमज्ञान प्राप्त हो गया क्योंकि उन्होंने अपना अज्ञान नाथ - चरणों पर भेंट स्वरूप जो चढ़ा दिया था - दिये दरस जति नाथ , मान लग्या पंकज चरन । आपुन थी जो साथ , सो अज्ञान पद भेट किय । । 1 । । भेट करतु अज्ञानु , भयी ज्ञानमय नाथ नृप । । सो तेजस्वी भानु , सुखकर चंद्रोपम कहीं । । 2 । । श्रीजलन्धरनाथ म . मानसिंह के लिए प्राण - स्वरूप हो गये - | जीवन मोर जलंधर स्वामी । । | मोरै निसदिन अंतरजामी । । । वे स्वयं को धन्य मानने लग गये – | संसार सद साक्षात त्वं , नमो नमरते नाथ मम । । परमेष्ट रूप दाता - त्वदिय , धन्य धन्य नृप मान हम । । 1 । । क्योंकि अब नाथ - चरण - शरण होकर अधम ' मान ' उत्तम बन गया था - अधम मान उत्तम कियौ , कियौ चरन सरनै । । ताकी महिमा नाथ ज़ , कहां लू जन वरनै ।
अनन्य अनुराग , अडिग आस्था एवं सतत साधना से म . मानसिंह को जो श्रीजलन्धरनाथ के अनुग्रह की उपलब्धि हुई , उस ‘ आतम परिचै ’ की ‘ निज दशा ' । का बिंब उकेरते हुए वे लिखते हैं कि एक दिन अपने भवन में नाथ - वाणी लिखते समय एकाएक अनहद नाद सुनाई पड़ा ; पावस ऋतु में झिल्ली की ध्वनि जैसा । फिर शीश में ‘ बटका ' उठा , दसवां द्वार खुल गया और उस ‘ शून्य भवन ' में सहजयोग की स्थिति में आत्मा पहुँच गई , आत्म - परिचय हो गया । अद्भुत दृश्य था वह । मादक अनहद नाद सुनाई पड़ रहा है , रवि - शशि के बिना भी वह शून्य - भवन प्रकाश में नहा रहा है , पाप - ताप मिट गये हैं एवं मान नाथजी में समा गये हैं । अर्थात् जीव परम ज्योति - तत्त्व को पा गया है । नृप बैटो इक दिन भुवन , लिखत नाथ वाणी । एतें उर अनहद लगी , वाजन नाद सुणी । । 1 । । कैसी जैसी ऋतु परम , पावस में झिल्ली । त्यो पलेक श्रवने लगी , फिर आवर्ण मिली । । एते बटक्यौ सीस जो , नाथ द्वार दसमा । नृपति लख्यौ कछू अवधि , वीती वा किस विध मा । । फिर आज्ञा थिरता भइ , नृप ग्यौ सेवा मांहि । तहां तें फिर आय्यौ उलटि , अब तो आज्ञा नांहि । । जिस दिन होगी सो दिन होगा । । | इतनै भक्ति प्रकास करोगा । । । मत मत घट में बोल रहे , इन वचनू पर मान । । नौछावर जुग जुग भय्यी , प्रान किय्यी कुरबान । । अनहद अंगी बाजनी , यह आतम परिचै । । बाहिर देख्या चांनणा , बिन रवि शशि ऊगै । । चंद न ऊगै रवि उदै , ब्रह्म न पांच जत्र । । मान समाना नाथ मैं , सुन्य - भुविन में तत्र । । श्रीजलन्धरनाथ ने सेवक मान के समस्त गुण - दोष स्वयं में समेट लिये हैं एवं मान के मन में बस आनन्द का उमाव ' ही ‘ उमाव ' हैं । किंकर मान का प्राण रूप पंखेरू ब्रह्म नाथजी के अछूट भंडार से उनकी कृपा के कण चुग रहा है । अहं का अन्धकार मिट गया है परम ज्ञान के सूर्योदय से । ब्रा - रस - पान से छके हुए मानसिंह यह चित्र हमारे सामने रखते हैं | एक जलंधी पाव , दूजी कोइ न देखिये । । मन आनंद उमाव , मिल्यो मान जतिनाथ य ।

भव भव के कर्मादिकनि , अपना करि राखि । सो जति पल में नांखि , आप रूप वंदै कियौ । । 4 । । अनदाता आधार , किंकर मान स्व जीव का । । चुगत नाथ भंडार , अविचल जुग जुग नाथ ग्रह । । 7 । । अलख लख्यो नहि जाय , सो गति तेरी नाथ है । । मान कहत शिर नाय , अहंपनी मुजसे छुट्यौ । । 10 । । भय्यी जलंधीपाव , आनंदातुर अवनि में । विचरत जगत उपाव , उध्धारन की करतु हैं । । 11 । । मेरै मैं गुन दोष , सो सब अपने मांझ लिअ । । करयौ संग मुहि मोष , आपु जलंधर आतमा । । 12 । । । साखी श्रीजतिनाथ , अनुभव आज्ञा भयो । साथी नित की साथ , मान जलंधर सी मिल्यो । । 13 । । भय्यी परम आनंद , सत चित रूप समाय ग्यौ । उदै स्वर्णगिर चंद्र , किरण प्रफुट्टिय भूमि मैं । । 14 । । । निर्मल ऊग्यो सुर , अंधियारी दूरी भयो । बोल्यौ चकवा पूर , मान स्वजन वाणी विषै । । 15 । । सचमुच , मिलन का यह विरल आनन्द विलक्षण है , अवाक् के अद्भुत स्वप्न की भाँति अनिर्वचनीय । म , मान इस चिर मादक अमृत - रस को पीकर तृप्त हैं । इस अनुभव के परमानंद की खुमारी में डूबे वे कहते हैं अनुभव परमानंद , अनुभव वात अगम्य है । अनुभव श्रीजतिचंद्र , मान जलंधर मिलन की । । 16 । । दीस एक स्वरूप , स्वामी सेवक साथ ही । एकै रूप अनूप , भौ प्रतिबिंबत जगत में । । 17 । । । समर्पित भक्त की सदैव यह कामना रहती है कि उसे अपने इष्ट का सतत सानिध्य मिले । पुण्यकीर्ति श्रीजलन्धरनाथ के चरणारविन्द की सौरभ से म . मानसिंह । के बीराये मन की भी यही उत्कट इच्छा थी । एक दिन साक्षात्कार के समय सुख - सागर श्रीजलन्धरनाथ से म , मानसिंह ने करुणा - विगलित स्वर में अपना । आत्म - निवेदन अंततः प्रस्तुत कर ही डाला - करी कृपा तुम जा पर नाथ । सोइ तिरछी रह्यो तुझ साथ । । अंसी कृपा करी जटधारी । साथ रहूं नित तोरै वारी ।

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