🚩सिरे मंदिर‌ जालोर के सिरमौर पीरजी श्री1008श्री शांतिनाथ जी महाराज की कृपा दृष्टि हमेशा सब पर बनी रहे सा।🚩🌹जय श्री नाथजी महाराज री हुक्म🌹🚩🙏🙏">

#सुभद्रा_माताजी_भाद्राजून :-

#सुभद्रा_माताजी_भाद्राजून :-

#धुबंडा पर्वत सुभद्रा माताजी भाद्राजून पर सुभद्रा माताजी ने सबसे पहले धुबंडा पर्वत पर एक रबारी जो गायों चरा रहा था उसको दिव्य दर्शन दिए थे, किसी जगह चोंद्धरा माताजी भी कहा जाता है, इनका बचपन का नाम चित्रम था महाभारतमें इनको "त्रिजटा" अवतार माना गया है, विभीषण का प्रागाढ स्नेह था, इसलिए इन्हें परिहास में विभीषण पुत्री कहा जाता है, जो कि अशोक वाटिका में सीताजी की दासी थी जो कि सात्त्विक और परम राम भक्त थीं, संत कहते है इनके सिर पर ज्ञान, भक्ति और वैराग्य रुपी तीन जटाएं है, अतः इनका नाम त्रिजटा है, त्रिजटा राक्षसी थी, जिसने सीता को अपनी पुत्री की संज्ञा दी और उनकी रक्षा भी की, सीताजी का भी स्नेह त्रिजटा से हो गया, युद्ध में परास्त करने के बाद जब श्री राम सीता मां को अयोध्या ले गए, वापस लौटते समय सीता मां ने त्रिजटा को वरदान दिया कि कलयुग में त्रिजटा को मां की संज्ञा मिलेगी और लोग उन्हें त्रिजटा मां ( देवी ) कहकर पुकारेंगे ।

अर्जुन नर नारायण के अंश थे, माना जाता है बलराम सुभद्रा का विवाह कौरव वंश में करना चाहते थे, जबकि कृष्ण पांडव पुत्र अर्जुन के साथ रैवतक पर्वत से श्री कृष्ण की मौन स्वीकृति पाकर अर्जुन ने सुभद्रा का हरण किया था, भाद्राजून द्वारिका-हस्तिनापुर मुख्य मार्ग पर स्थित था, कहा जाता है कि बलरामजी का दैवीय हल किसी को भी 500 योजन की दूरी तक पकड़ लेता था, ऐसे में इस स्थान की दूरी द्वारिका से 500 योजन से अधिक होने के कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस स्थान पर ही रुकने को कहा था, उस समय यह पर्वत अनेक ऋषि-मुनियों की तपोस्थलि हुआ करता था, राम रसोड़ा और शयन कक्ष के ऊपरी भाग में पहाड़ी की तरफ अभी भी धुणा बना हुआ है जो कि प्राकृतिक रूप से आकर्षक है ।

महाभारत काल में पाण्डवों ने इस स्थान पर 12 सालों तक तपस्या की थी, इन बारह सालों में एक बार भी सोमवती अमावस्या नहीं आई, इस पर पाण्डवों ने श्राप दिया कि कलयुग में हर साल सोमवती अमावस्या आएगी, तभी से सोमवती अमावस्या हर वर्ष आने लगी, मंदिर के दाये बावड़ी के ऊपर भाग में एक प्राचीन गुफा है, जो सर गांव स्थित सुभद्रा माता मंदिर तक जाता है
और गुफा के मुख्य द्वार पर आज भी प्रकट हुई माताजी की छोटी प्रतिमा मौजूद है फिलहाल उस जगह पर जाने की और फोटो लेने की पाबंदी है ।

माना जाता है कि श्री कृष्ण ने अर्जुन एवं सुभद्रा को गुजरात के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल ‘द्वारका’ जाकर विवाह करने का परामर्श दिया, दोनों ने दो घोड़ों के रथ पर सवार होकर द्वारका के लिए प्रस्थान किया, लगातार तीन रात और दो दिन चलने के बाद वे लूणी नदी के बेसिन पर बनी इस घाटी में पहुंचे जहां आज भद्राजुन गांव स्थित है, उन दिनों यहां किसी तरह की बसावट नहीं थी, अत: यह स्थल सुभद्रा और अर्जुन के लिए विश्राम करने हेतु एकांत एवं सुरक्षित था, यहीं पर उन्होंने एक मंदिर के पुजारी की मदद से विवाह किया और कहते हैं कि, इसके बाद धीरे-धीरे इस घाटी में अन्य लोगों ने भी बसना शुरू  किया और इस स्थल का नाम ‘सुभद्रा अर्जुन’ हो गया जिसे आज ‘भद्राजुन’ के नाम से जाना जाता है ।

आज भी चौराई पट्टी में गीत प्रचलित है
"भाखर फोड भवानी आया हमारे घर माजीसा आया"
मंदिर के दाईं ओर ऊपरी भाग में एक झरना है, जो कि आज भी मंद गति से अविरल बहता है वहीं पर एक ऐतिहासिक बावड़ी है जिसमें हमेशा जल भरा रहता है उस जल को पवित्र माना जाता है, ऐसी मान्यता है, कि उस जल से कई प्रकार की बीमारियां नष्ट हो जाती है, उस झरने से प्राचीन समय नदी निकलती थी इनकी पूजा और अर्चना होती थी, धीरे धीरे चूंकि इस प्रदेश के लोग यवनों के संपर्क में आकर यवन आचार विचार के मानने वाले होने लगे ,मलेच्छो ने नदी दूषित कर दी प्राकृतिक भुकंप बाढ आने से जमीन उथल-पुथल हो गई जिससे यह नदी धीरे धीरे आगे जाकर विलुप्त हो गई । 

#सर (लुणी) मंदिर के बारे में ऐसा कहा जाता है कि यहां पर भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा और पाण्डु पुत्र धनुर्धारी अर्जुन के विवाह की शुरुआत (पाट बिठाने के समय) में एक धागा बांधा जाता है, उसे मारवाड़ी भाषा में सर कहा जाता है जो कि एक प्रकार का सूती डोरा होता है वो सर की रस्म यहां पर निभाई गई थी ।

कलबी कुल के सुरो बापू भुंगर को दिए थे दर्शन सर गांव में सन 1910 में कलबी कुल के सुरो बापू भुंगर को सुभद्रा माता ने दर्शन देकर वचनसिद्धि का वरदान दिया था, उसके बाद सुरो बापू भुंगर ने 12 साल तक अपने खेत में सुभद्रा माता की पूजा-अर्चना की ।

#जुटाणा- यहां पर सुभद्रा अर्जुन और उनके कई साथी धुंबडा जाने से पहले विभिन्न स्थानों से एकत्रित हुए थे, एकत्रित होने को जुटना कहां जाता है जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर जुटाणा हो गया, यह स्थान भोरडा के पास में है जो कभी एक गांव हुआ करता था ।

#खुंटाणी इस स्थान पर सुभद्रा अर्जुन के विवाह के समय चार खूटी गाडी गई थी, जो कि क्षैत्रपाल देवता को समर्पित होती है वो जगह आज खुंटाणी गांव के नाम से प्रचलित है, पाली जिले के #दिवान्दी गांव से भी है, जिसका पौराणिक नाम ताबावंती था, बाद में इसे देवनगरी कहा जाने लगा, सुभद्रा अर्जुन का विवाह महर्षि वेद व्यास ने करवाया था, जहां तोरण बांधने की रस्म हुई थी, वहां अर्जुन-सुभद्रा ने भगवान शिव का लिंग स्थापित किया, जिसे तोरणेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है, वर्तमान में यह दिवान्दी नाम से जाना जाता है ।    
                              
विवाह उपरांत दक्षिणा रूप में अर्जुन ने पुरोहित को शंख भेंट किया और देवी सुभद्रा ने नाक की बाली भेंट स्वरूप दी थी, कालांतर में जिस स्थान पर पुरोहित रहते थे उस स्थान का नाम शंख व बाली से #शंखवाली पड़ा, सुभद्रा माताजी इन राजपुरोहितों की कुलदेवी भी मानी जाती है 

रात को चंद्रमा की रोशनी में सुभद्रा अर्जुन शतरंज का खेल खेलते हुए जिस स्थान पर कुछ दिन रूके थे, उस जगह को #चांदराई कहा जाता है ।

#पाणवा इस स्थान पर अज्ञातवास में पांडवों ने कुछ दिन विश्राम किया था पहले इस गांव को पांडवापुर कहा जाता था जो कि बाद में अपभ्रंश होकर पाणवा कहलाने लगा, इस गांव के आसपास गांवों में बहुत से शिवमन्दिर देखने को मिलेंगे उसमें से कुछ पांडव कालीन है, चूंकि अर्जुन ने सुभद्रा का इच्छानुसार हरण किया था, इसलिए बलराम जी ने क्रोधित होकर यादवों की सेना अर्जुन के पीछे लगा दी थी अर्जुन ने विवाह और यादवों से युद्ध एक ही साथ चल रहा था इसलिए इतनी जगह अलग अलग विवाह के संस्कार करने पड़े थे ।

हल्दिया राक्षस इस क्षैत्र में रहता था पांडु पुत्र भीम ने  अज्ञातवास में उस राक्षस से मुक्ति दिलाकर उस जगह शिवलिंग की स्थापना की थी उस जगह को हल्देश्चर महादेव कहा जाता है, हल्देश्वर मठ के महंत शीतलाईनाथ के अनुसार भागवत कथा में वर्णित है कि भगवान श्री कृष्ण अपनी बहन के पास जाने से पहले हल्देश्वर मठ में कुछ देर विश्राम किया था, उन्होंने अपने रथ व घोड़े को हल्देश्वर मठ के पास छोड़ा था, इस जगह को #रायथल कहा जाता है ।

इसके बाद कृष्ण भाद्राजून गए और अपनी बहन तथा अर्जुन को आशीर्वाद दिया वहां पर कृष्ण मंदिर भी मौजूद हैं यहां से वापस जाकर बलरामजी को राजी किया था तब जाकर उनका क्रोध शांत हुआ था, उस समय हल्देश्वर मठ के आस पास जंगल ही था, जालोर किले की दूसरी तरफ था, मोहनलाल गुप्ता लिखित पुस्तक जालोर जिले का सांस्कृतिक इतिहास में सुभद्रा अर्जुन के भाद्राजून में विवाह करने तथा अपनी बहन सुभद्रा को आशीर्वाद देने से पूर्व कृष्ण का जालोर के वर्तमान हल्देश्वर मठ में विश्राम करने का वर्णन लिखा है ।

रणचंडी दंडी असुर, सेवक कलण सहाय,
बैठी मावड बीस हथ, शक्ति धुबंडा राय..!
                  धुंबडगढ में आठो पहर, भगत जणा री भीड
                  समृद्धि बांटे मां सुभद्रा, पुनि काटे दुःख पीड !!

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2 Comments

  1. इस पोस्ट से लेखक का नाम नहीं हटाना चाहिए था बहुत सोच समझ कर विशेष तथ्यों अध्यन करके लिखी थी

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  2. कृपया लिखने वाले का नाम डालते तो उत्साह बढ़ता

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