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राजा मानसिंह जोधपुर

राजा मानसिंह जोधपुर
जोधपुर के महाराजा मानसिंह का जन्म माघ शुक्ला ११ वि.स.१८३९, १३ फरवरी सन १७८३ को हुआ था| ये जोधपुर के तत्कालीन महाराजा विजय सिंह के पांचवे पुत्र गुमान सिंह के पुत्र थे| छ: वर्ष की छोटी आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था तथा इनके पिता भी ३० वर्ष की अल्पायु में ही चल बसे थे| माता की मृत्यु के मानसिंह का लालन-पालन उनके पितामह राजा विजय सिंह की पासवान गुलाबराय ने बड़े लाड-प्यार से किया| राजा विजय सिंह पर पासवान गुलाबराय का बहुत ज्यादा असर था वे उसकी हर बात मानते थे, गुलाबराय चाहती थी कि राजा विजय सिंह अपने सबसे छोटे पुत्र शेरसिंह को अपना उतराधिकारी बनाये जो कि राजपूत कुल में चली आ रही परम्पराओं व नियम विरुद्ध था| और यही उतराधिकार की बात आगे चलकर जोधपुर राजघराने में बड़े बड़े षड्यंत्रों व पारिवारिक संघर्ष का कारण बनी और इसके चलते जोधपुर राजघराने के बहुत से सदस्य कालकलवित हुए|

नियमानुसार राजा विजय सिंह के बड़े बेटे के पुत्र भीमसिंह को उतराधिकार मिलना था पर गुलाबराय द्वारा शेरसिंह को उतराधिकारी बनाने की मुहीम के चलते विजय सिंह के पोत्र भीमसिंह ने उतराधिकार से वंचित रहने की आशंका के चलते महाराजा विजय सिंह की अनुपस्थिति में वि.स. १८४९ में जोधपुर किले पर कब्ज़ा कर अपने आपको जोधपुर का महाराजा घोषित कर दिया| इस स्थिति में मानसिंह अपने चाचा शेरसिंह के साथ भीमसिंह से सुरक्षित रहने के लिए जालौर किले में चले गए|

भीम सिंह के किले पर कब्ज़ा करने के बाद जोधपुर के सामंतों द्वारा विजयसिंह के बाद उसे जोधपुर की गद्दी मिलने का आश्वासन और सिवाना की जागीर मिलने के बाद किले पर कब्ज़ा छोड़ दिया|

आषाढ़ शुक्ला ३ वि.स.१८५० में विजय सिंह की मृत्यु के बाद भीमसिंह का आषाढ़ शुक्ला १२ वि.स. १८५० को पुन: जोधपुर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक किया गया| इसके बाद मानसिंह पुन: जालौर किले में चले गए| उन्हें पालने वाली पासवान गुलाबराय की वि.स.१८४९ में ही एक षड्यंत्र के तहत हत्या कर दी गयी थी|

मानसिंह के जालौर किले में जाने के बाद पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने राजा भीमसिंह को उनके खिलाफ भड़का दिया जिसके परिणाम स्वरूप भीमसिंह ने मानसिंह को मारने के लिए जालौर किले पर चढ़ाई के लिए सेना भेज दी और जोधपुर की सेना के साथ मानसिंह का लगभग बारह वर्ष तक संघर्ष चलता रहा जोधपुर की सेना द्वारा इतने लम्बे समय तक जालौर दुर्ग को घेरने के उपरांत मानसिंह सैनिक समस्या के साथ आर्थिक व खाद्य सामग्री की समस्या से लगातार झुझते रहे|

पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने अपने जीते जी जोधपुर राजपरिवार में आपसी संघर्ष को कभी ख़त्म नहीं होने दिया| दरअसल सवाईसिंह के पिता व दादा की जोधपुर के राजा विजयसिंह ने हत्या करवाई थी सो सवाईसिंह उसकी बदला अपनी छद्म कूटनीति से ले रहा था वह चाहता था कि जोधपुर राजपरिवार इसी तरह आपसी संघर्ष में नेस्तनाबूद हो जाय|

आखिर कार्तिक शुक्ला ४ वि.स. १८६० में भीमसिंह की मृत्यु हो गयी तब राजपरिवार के जीवित बचे सदस्यों में राजगद्दी का अधिकार मानसिंह का बनता था सो जोधपुर के जिस सेनापति इंद्रराज सिंघवी ने मानसिंह को मारने के लिए जालौर दुर्ग घेर रखा था ने खुद ही दुर्ग में जाकर मानसिंह को भीमसिंह की मृत्यु का समाचार देते हुए उन्हें जोधपुर किले में चलकर शासन सँभालने हेतु आमंत्रित किया|

सेनापति इंद्रराज सिंघवी व ठाकुर सवाईसिंह के बीच अच्छी मित्रता थी दोनों आपस में धर्म भाई बने हुए थे और जोधपुर की शासन व्यवस्था में दोनों का ही तब तगड़ा दखल था| सवाईसिंह के साथ इंद्रराज सिंघवी की मित्रता होने के चलते मानसिंह अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं थे उन्हें किसी षड्यंत्र की आशंका थी सो मानसिंह ने जोधपुर के तत्कालीन सबसे शक्तिशाली सामंत आउवा के ठाकुर माधोसिंह को जालौर किले में बुलवाया और अपने काव्य रूपी शब्दों से उनका मन जीत लिया और तब पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद जोधपुर किले में आकर सत्ता संभाली|

पर तभी सवाई सिंह ने एक धुंकलसिंह नामक बच्चे को यह कहकर कि भीम सिंह मरते समय इसे गर्भ में छोड़ गए थे उतराधिकार के लिए आगे कर दिया| मानसिंह ने उसकी जांच पड़ताल करवा तब यह साबित हुआ कि ये सब सवाईसिंह की चाल है| और उसके बाद मानसिंह का जोधपुर राज्य की राजगद्दी पर माघ शुक्ला ५, वि.स.१८६० में राज्याभिषेक हुआ| मानसिंह ने जोधपुर राज्य पर चालीस वर्षों तक शासन किया पर अपने पुरे शासन काल में वे कभी चैन से नहीं बैठ सके| गृह कलेश व सवाईसिंह के षड्यंत्रों के चलते हमेशा उन्हें मारने की योजनाएं बनती रहती थी कभी भोजन में जहर देकर, कभी उनके बिस्तरों में सांप, बिच्छु आदि छोड़कर| मानसिंह को इन षड्यंत्रों से हमेशा सजग रहना होता था और षड्यंत्रकारियों को पकड़ने के बाद वे उन्हें कड़ी सजा दिए करते थे इन सजाओं में जिंदा किले से फैंक देना, तोप के आगे खड़ाकर उड़ा देना, जहर पीने के लिए विवश कर देना, हाथियों के पैरो तले कुचलवा देना, आम तरीके थे| आज भी मानसिंह की कठोर व निर्दयी दंड प्रणाली के किस्से लोक कथाओं में सुनने पढने को मिल जातें है| अपने खिलाफ षड्यंत्रों में शामिल अपने कई परिजनों को भी मानसिंह ने जिंदा नहीं छोड़ा था|

जैसा की ऊपर बताया जा चूका है मानसिंह अपने जीवन काल में कभी चैन से नहीं बैठ पाये| बाल्यकाल से ही गृह कलेश के चलते षड्यंत्रों व लड़ाई झगड़ों में उलझे रहे| चाहे वह जालौर दुर्ग में रहते हुए भीमसिंह द्वारा डाले घेरे में रहें हो या फिर जोधपुर के राजा बनने के बाद परिजनों, सामंतों के षड्यंत्र से बचने के संघर्ष में रहें हो उनका पूरा जीवन संघर्षमय ही रहा| और शायद इन षड्यंत्रों का ही नतीजा था कि उनकी दंड प्रक्रियाएं कठोर व निर्दयी रही| दुश्मन को नेस्तनाबूद करने के लिए मानसिंह का एक सिद्धांत था वे कहते थे कि- “दोनों हाथों को शहद में डुबोकर उन्हें तिलों में दबा दो तब जितने तिल हाथों पर चिपकेंगे उतने ही तरीकों के धोखे यदि शत्रु को मारने के लिए करने पड़े तो कम है|”इतना होने के बावजूद राजा मानसिंह के व्यक्तित्व के इसके विपरीत एक तत्व या गुण और था जिसे जानने के बाद उनके विरोधाभासी स्वभाव का पता चलता है| कोई भी व्यक्ति भरोसा नहीं कर सकता कि इतना कठोर, निर्दयी, क्रूर शासक इतना धार्मिक, दयालु, दानी,कला व विद्याप्रेमी, उच्च कोटि का कवि साहित्यकार भी हो सकता है, राजस्थान का ऐसा कोई साहित्यकार या साहित्य में रूचि रखने वाला व्यक्ति नहीं होगा जो राजा मानसिंह के द्वारा की गयी साहित्य साधना व साहित्य के लिए किये कार्य को नहीं जानता होगा| मानसिंह ने अपने अच्छे व बुरे दोनों समय में कवियों, कलाकारों, साहित्यकारों को पूर्ण संरक्षण दिया| जालौर दुर्ग में घिरे रहने के कठिन समय में भी उनके पास उच्च कोटि के कई कवि साथ थे| यही नहीं मानसिंह खुद बहुत अच्छे कवि थे| उन्होंने हर मौके पर काव्य के माध्यम से ही अपने सुख, दुःख आदि को अभिवक्त किया|

मानसिंह ने लगभग साठ पुस्तकें लिखी, जोधपुर के किले में “पुस्तक प्रकास” नाम से पुस्तकालय की स्थापना की, कई लेखकों की रचनाओं व प्रतियों को कलमबद्ध कर सुरक्षित करवाया| “गुणीजन सभा” नाम से राजा ने एक सभा भी बना रखी थी जिसकी हर सोमवार रात्री को सभा होती थी जिसमें कवि, गायक, कलाकार, पंडित आदि सभी अपनी अपनी विद्या का प्रदर्शन करते थे साथी पंडितों के बीच शास्त्रार्थ होता था जिसमे राजा खुद भाग लेते थे|

राजा मानसिंह पर अपनी शोध पुस्तक “महाराजा मानसिंह जोधपुर” में डा.रामप्रसाद दाधीच लिखते है- ” मानसिंह की प्रकृति और स्वभाव का विश्लेष्ण करते समय हमें उनके जीवन और व्यक्तित्व के स्पष्टत: दो पृथक पक्षों को स्मरण रखना पड़ेगा| उनके जीवन का एक पक्ष है- राजा और शासक के रूप में वे कठोर, निर्दय,क्रूर और कूटनीतिज्ञ दिखाई देते है| उनके शासकीय जीवन की ऐसी अनेक घटनाओं का इतिहास ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है| जिनसे यह सहसा धारणा बनती है कि जो व्यक्ति इतना अमानवीय है, वह इतना उच्च कोटि का भक्त और कवि कैसे हो सकता है?”

मानसिह के आचरण के रूप है- एक उनका प्रतिकारी हिंसक रूप और दूसरा है प्रशंसा और आभार पदर्शन का रूप| इसीलिए लोक में मानसिंह की “रीझ और खीझ” प्रसिद्ध है| जिस पर अप्रसन्न हो गए फिर उसके अस्तित्व को ही मिटा दिया और जिस पर मुग्ध हो गए उसे आकाश पर बिठा दिया”

अपने संघर्ष पूर्ण जीवन में शिक्षा ग्रहण करने के लिए परिस्थितियां अनुकूल ना होने के बावजूद मानसिंह ने ज्ञानार्जन का मोह नहीं छोड़ा, समय निकालकर उन्होंने कवियों,पंडितों आदि के साथ कई भाषाओँ व विषयों यथा- धर्म शास्त्र, कुरान, पुराण, ज्योतिष, आयुर्वेद, साहित्यशास्त्र, संगीत शास्त्र आदि का अध्ययन किया|

मानसिंह की विद्वता पर कर्नल टॉड अपनी पुस्तक Tod Volume-1- Page- 562 लिखते है- “हमारे वार्तालाप के मध्य मुझे इनकी बुद्धिमत्ता के प्रभावक प्रमाण प्राप्त हुए है| इन्हें ण केवल अपने प्रदेश का अपितु सम्पूर्ण भारत के अतीतकालीन इतिहास का सूक्ष्म ज्ञान है| इनका अध्ययन विशद है|”

Tod Volume-1- Page-561 पर कर्नल टॉड लिखता है- ” मानसिंह का जीवनवृत मानवीय, सहिष्णुता, साहस और धैर्य का एक ऐसा उदाहरण है जो अन्य किसी देश और युग में कठिनाई से मिलता है किन्तु विपदाओं की निरंतर अनुभूतियों ने उसे भी निर्दयी बना दिया| उसमें सिंह का भयंकर क्रोध ही नहीं था अपितु इससे भी घातक उसकी चालाकी भी उसमें थी|”

कर्नल टॉड जैसे प्रत्यक्ष इतिहासकार जो मानसिंह से प्रत्यक्ष मिला था जिसकी मानसिंह से अच्छी मित्रता थी के उपरोक्त कथन से सिद्ध होता है कि- मानसिंह में सहिष्णुता, साहस,धैर्य आदि मानवीय गुण थे किन्तु तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियां और षड्यंत्रों ने उन्हें क्रूर बना दिया|

राजा मानसिंह ने अंत:बाह्य परिस्थितियां अपने अनुकूल न होने के बावजूद अपने स्वाभिमान को खंडित होने से बचाने के लिए उदयपुर महाराणा भीमसिंह, जयपुर नरेश जगतसिंह से पूरी टक्कर ली व कभी झुके नहीं| मानसिंह द्वारा अपने स्वाभिमान के लिए की गयी जिद के कारण ही उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहरपान करना पड़ा| अंग्रेजों से भी संधि करने के बावजूद वे कभी दबे नहीं|

धार्मिक आस्था :
मानसिंह की धर्म में गहरी आस्था थी| नाथ सम्प्रदाय के आयास देवनाथ उनके धर्म गुरु थे| मानसिंह ने जालौर किले में जोधपुर सेना द्वारा लम्बी घेराबंदी के बाद जब धन व रसद एकदम खत्म हो गयी तो निराश होकर आत्म समर्पण का निश्चय किया तब उनके धर्म गुरु देवनाथ ने उन्हें समर्पण करने से यह कहते हुए रोका कि- चार दिन रुक जाईये परिस्थितियां आपके अनुकूल होंगी|”

और चार दिन के भीतर ही जोधपुर महाराजा भीमसिंह का निधन हो गया और जोधपुर की राजगद्दी मानसिंह को मिल गयी| इसके बाद तो मानसिंह की नाथ सम्प्रदाय और अपने धर्म गुरु में आस्था अंधभक्ति के स्तर तक पहुँच गयी| जोधपुर आने के बाद मानसिंह देवदास को जोधपुर ले आये और उनके लिए महामंदिर नामक धर्मस्थल बनवाया| सत्ता का आश्रय पाकर जब नाथ धर्म गुरुओं ने जोधपुर में आतंक मचाया तब उनसे दुखी होकर जोधपुर के सामंतों ने मीरखां पिंडारी के हाथों षड्यंत्र रचकर देवदास को मरवा दिया| क्योंकि राजा मानसिंह नाथों के खिलाफ कुछ भी सुनने को राजी नहीं थे| वे उनकी अंधभक्ति में फंस चुके थे| और राज्य का बहुत सा धन नाथ योगियों पर खर्च डालते थे|

स्वतंत्र्य प्रेम :
राजा मानसिंह के देशप्रेम व स्वतंत्र्य प्रेम पर डा.रामप्रसाद दाधीच अपनी शोध पुस्तक “महाराजा मानसिंह जोधपुर’ के पृष्ठ संख्या 58 पर लिखते है -” मानसिंह के व्यक्तित्व की एक विशेषता उनके स्वतंत्र्य प्रेम और देशभक्ति को लेकर भी है| भारतवर्ष में ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देखकर वे बहुत क्षुब्ध थे| देश का चतुर्दिक राजनैतिक वातावरण ऐसा था कि वे अपनी देशभक्ति, स्वतंत्र्य प्रेम और ब्रिटिश विरोध को प्रत्यक्षत: अभिव्यक्त नहीं कर पाते थे| अपने राज्य की आंतरिक परिस्थितियों के कारण उन्हें विवश होकर अंग्रेजों से वि.स. १८६० पौष शुक्ला को संधि भी करनी पड़ी किन्तु शर्तों के ऊटपटांग होने के चलते मानसिंह ने उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया| वि.स. १८७४ में छतरसिंह के शासनकाल के समय पुन: अंग्रेजों से संधि हुई किन्तु मानसिंह ने कभी अंग्रेजों को कर नहीं चुकाया और उनके हस्तक्षेप को अपने आंतरिक शासन में कभी सहन ही नहीं किया|”

अंग्रेजों के दो बड़े शत्रु जसवंतराव होल्कर और नागपुर के अप्पाजी भोंसले को अंग्रेजों से हारने पर अंग्रेजों के विरोध के बावजूद मानसिंह ने अपने यहाँ शरण दी व सहायता दी| साथ ही वि.स. १८८८ में लार्ड विलियम बैटिक द्वारा अजमेर में आयोजित दरबार का मानसिंह ने बहिष्कार किया| अपने खिलाफ प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के चलते मानसिंह को अंग्रेजों से संधि तो करनी पड़ी पर वे जिंदगीभर अंग्रेजों को छकाते और तबाह करते रहे|

मानसिंह के स्व्तान्त्र्यप्रेम पर इतिहासकार नाथूराम खडगावत अपनी पुस्तक “Rajasthan Roles in the Struggle” में लिखते है- “पूर्व ग़दर युग में महाराजा मानसिंह ही अकेले शासक थे जिन्होंने ब्रिटिश-शक्ति के हस्तक्षेप का भयंकर प्रतिरोध किया और अपने समय के अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति करने वालों को अपना हार्दिक सहयोग दिया|”

इतिहासकारों का मानना है कि यदि मानसिंह के राज्य की आंतरिक व्यवस्था उनके अनुकूल होती और सभी सामंत-सरदार उनका साथ देते तो शायद नक्शा कुछ और ही होता| भारत के उस वक्त के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह से भी मानसिंह की बहुत अच्छी मित्रता थी| मार्गशीर्ष शुक्ला १२, वि.स. १८७९ में महाराजा रणजीतसिंह ने राजा मानसिंह को एक पत्र में लिखा-

परिवार :
राजा मानसिंह ने कुल तेरह विवाह किये थे साथ ही इनकी छ: उपपत्नियाँ (पासवान) भी थी| इनकी रानियों से आठ पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई जिनमें एक पुत्र छत्रसिंह व दो पुत्रियों को छोड़ सभी अल्पायु में ही कालकलवित हो गए थे| इकलौते पुत्र छत्रसिंह को भी इनके षड्यंत्रकारी सामंतों ने १७ वर्ष की आयु में ही युवराज का पद दिलवा शासन व्यवस्था उसके हाथों में दिलवा दी| और उसे कुसंग्तियों यथा नशा, विलासिता आदि में डाल दिया जिसकी वजह जल्द ही उसकी भी मृत्यु हो गयी|
षड्यंत्रों में इतने परिजनों को खोने के बाद यह राजा मानसिंह के लिए एक बड़ा आघात था |

अंतिम समय :
जीवनभर चले षड्यंत्रों में स्वजनों को खोने के बाद एक मात्र पुत्र को खोने व अपने धर्म गुरु नाथों की हत्या व गिफ्त्तारियों के बाद मानसिंह का जीवन व शासन के प्रति मोह भंग हो गया और उन्होंने सन्यास ले लिया वे विक्षिप्तों की तरह इधर उधर घुमने लगे, भोजन करना छोड़ दिया, शरीर पर राख लगा ली और जोधपुर के ही निकट पाल गांव चले गए और वहां से जालौर चले गए इसी दरमियान उन्हें बुखार रहने लगा| पोलिटिकल एजेंट लाडलो को जब यह बात पता चली तो वह उन्हें किसी तरह शासन व्यवस्था बिगड़ने की दलील देकर वापस लाया और वे जोधपुर आकर राइका बाग़ में आकर ठहर गए जहाँ से स्वस्थ्य गिरने के बाद वे मंडोर चले गए और मंडोर में ही भाद्रपद शुक्ला, ११ वि.स. १९०० को इनका निधन हो गया|

मंडोर जोधपुर से कुछ किलोमीटर दूरमंडोर जोधपुर बसने से पहले मारवाड़ राज्य की प्राचीन राजधानी थी| आज वहां कुछ खण्डहरों के अलावा एक बहुत बड़ा बगीचा है जिसमें संग्रहालय व जोधपुर के दिवंगत नरेशों की याद में देवल (स्मारक) बने है जो दर्शनीय है और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है|

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